भले ही कोरोना महामारी के दौरान सरकार राजस्व के दबाव में हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह आम लोगों की छोटी बचतों पर हाथ डाले। ये बचतें बुजुर्गों व सेवानिवृत्त लोगों की जीवन रेखा हैं। सरकार ने बुधवार को छोटी बचत योजनाओं के ब्याज पर बड़ी कटौती की घोषणा की, लेकिन लोगों के गुस्से के बाद गुरुवार को घोषणा को वापस ले लिया। लोगों ने राहत की सांस तो ली है लेकिन आशंका बनी है कि सरकार की मंशा उनकी बचत पर चपत लगाने की है। विपक्ष के अनुसार सरकार ने पश्चिम बंगाल-असम के मतदान वाले दिन नुकसान की आशंका से यू-टर्न लिया। दरअसल, मुद्दे पर संवेदनशील व्यवहार दिखाने की जरूरत है क्योंकि यह करोड़ों लोगों की जीविका-आकांक्षाओं से जुड़ा मुद्दा है। फैसले की वापसी पर जो दलील सरकार ने दी वह सहज गले से नहीं उतरती। कहीं न कहीं सरकार की ऐसा करने की मंशा तो थी। सेवानिवृत्त लोग जीवन भर की जमापूंजी को इन योजनाओं में निवेश करते हैं। उनका धन सुरक्षित रहता है और दूसरे बाजार के मुकाबले कुछ ज्यादा ब्याज मिल जाता है। संयुक्त परिवारों के बिखराव के बीच जब बच्चे जिम्मेदारी नहीं निभाते तो इन बचतों के जरिये ही वे जीवनयापन करते हैं। ये उनकी सामाजिक सुरक्षा का आधार हैं। वे इससे आत्मनिर्भर बने रह सकते हैं। सरकार का कदम उनकी उम्मीदों पर तुषारापात सरीखा था। वहीं मध्यम वर्ग का कहना है कि सरकार उन्हें निचोड़ने पर लगी है।
सरकार को विकसित देशों में छोटी बचतों पर कम ब्याज दर तो नजर आती है, लेकिन उन देशों में बुजुर्गों की सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं पर भी ध्यान देना चाहिए। ऐसे में जिन बचतों के जरिये बड़े तबके द्वारा गुजारा किया जाता है, उसे कम करना आक्रोश का मुद्दा बन सकता था। संभव है शेयर बाजार में रिटर्न ज्यादा मिल सकता है लेकिन हर कोई बाजार के उतार-चढ़ाव में अपनी जमा पूंजी दांव पर नहीं लगा सकता। ऐसे में बचत खातों, पीपीएफ, आरडी, टर्म डिपॉजिट, एन.एस.सी. तथा साठ साल से अधिक उम्र के लोगों की बचत योजनाओं पर ब्याज में कटौती करना अच्छा संदेश नहीं देता। फिर सरकार करोड़ों लोगों के निशाने पर आ जाती। यही वजह है कि लोगों के विरोध से बचने के लिये सरकार ने अपने कदम वापस खींच लिये। लोग छोटी बचत अपने मुश्किल वक्त के लिये रखते हैं ताकि उन्हें किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। वह भी तब जब कोरोना संकट के कारण लोगों की आय घटी है और दूसरी लहर का संकट सामने है। पहले ही छोटी बचत के प्रति लोगों का आकर्षण कम हो रहा है। नोटबंदी के बाद लोगों को घर में रखी जमा पूंजी बैंकों में जमा करानी पड़ी थी, वहां भी ब्याज ठीक-ठाक न मिले तो वे कहां जायें? ध्यान रहे कि 2008 की मंदी में छोटी बचतों ने सरकार का बेड़ा पार लगाया था।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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