अभाव का टीका (जनसत्ता)

देश में महामारी की तस्वीर जिस कदर बिगड़ती जा रही है, उससे साफ है कि इसमें जितनी भूमिका संक्रमण के फैलाव की है, उससे ज्यादा यह स्थिति इससे निपटने में प्रबंधन के स्तर पर मौजूद कमियों की वजह से आई है। एक ओर जांच का दायरा ज्यों-ज्यों फैल रहा है, वैसे-वैसे यह उभर कर सामने आ रहा है कि विषाणु के पांव किस हद तक फैल रहे हैं, तो दूसरी ओर अस्पतालों में बुनियादी संसाधनों तक के अभाव से लेकर अव्यवस्था की वजह से काफी लोगों की मौत हो रही है। ऐसे में कोरोना की रोकथाम के लिए आॅक्सीजन और दवाइयों के समांतर सबसे कारगर उपाय टीकाकरण को माना जा रहा है। हालांकि अलग-अलग आयु वर्ग के लोगों को टीका लगाए जाने की शुरुआत हो चुकी है और उसके बाद से अब तक चौदह करोड़ से ज्यादा लोगों का टीकाकरण किया जा चुका है। संसाधनों के अभाव के बीच यह एक संतोषजनक उपलब्धि है। लेकिन यह भी सच है कि आबादी के अनुपात में अभी सबको टीका उपलब्ध करा पाना इतना आसान काम नहीं है।

महामारी की गंभीरता के मद्देनजर पिछले दिनों यह घोषणा तो कर दी गई कि अब एक मई से अठारह से पैंतालीस साल उम्र तक के लोग टीका लगवा सकेंगे, लेकिन इससे पहले यह सुनिश्चित करने की जरूरत शायद नहीं समझी गई कि आबादी के इतने बड़े हिस्से के लिए टीकों की उपलब्धता कितनी है। अब हालत यह है कि महाराष्ट्र, दिल्ली, राजस्थान, छत्तीसगढ़, असम आदि राज्यों में निर्धारित तारीख से इस आयु वर्ग के लोगों के लिए टीकाकरण की शुरुआत कर पाना संभव नहीं है। कई अन्य राज्यों में भी टीकों की पर्याप्त खुराक उपलब्ध नहीं होने की वजह से यह कार्यक्रम अधर में लटकता दिख रहा है।

दरअसल, आबादी के इतने बड़े हिस्से को अचानक ही आसानी से टीका लगाना एक व्यापक और जटिल काम है। पहले साठ और फिर पैंतालीस वर्ष से ऊपर के लोगों को टीका लगाने का कार्यक्रम अभी चल ही रहा था और उसमें भी अभी बहुत सारे जरूरतमंद टीके का इंतजार कर रहे थे। इस बीच अठारह से पैंतालीस साल के आयु वर्ग के लिए टीकाकरण की घोषणा हो गई।

यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अन्य आयु वर्गों की अपेक्षा अठारह से पैंतालीस साल के आयु वर्ग की आबादी काफी बड़ी है और सबको टीके मुहैया करा पाना इसकी उपलब्धता पर ही निर्भर है। यों देश भर में और अलग-अलग राज्यों की जरूरत के मुताबिक टीका तैयार करने के लिए विभिन्न कंपनियों को कहा गया है, मगर यह काम इतना बारीक और जटिल है कि इसे हड़बड़ी में मांग आधारित कार्यक्रम के फार्मूले के तहत पूरा नहीं किया जा सकता है। टीकों का सुरक्षित होना सबसे बड़ी शर्त है। देश या विदेश में स्थित जिन कंपनियों को इजाजत मिली है, उनसे टीका प्राप्त होने में वक्त लगना स्वाभाविक है।

मौजूदा स्थिति को देखते हुए यही लगता है कि जब तक सबके लिए इसकी उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो जाती है, तब तक इस कार्यक्रम की सफलता आसान नहीं होगी। फिर यह भी देखना होगा कि सरकारी तंत्र के नियंत्रण में यह काम पूरा कर पाना कितना संभव होगा या फिर इसमें निजी क्षेत्र को कुछ और छूट दी जाएगी। यह सवाल भी उठ सकता है कि क्या खुले बाजार में टीके उपलब्ध करा कर इस कार्यक्रम में केंंद्रित बोझ को कुछ कम किया जा सकता है! देश इस महामारी की त्रासदी से बाहर निकलेगा, लेकिन फिलहाल जरूरत इस बात की है कि टीके के सुलभ होने तक महामारी से बचाव के लिए निर्धारित नियम-कायदों का पूरी तरह पालन किया जाए, ताकि संक्रमण को काबू में किया जा सके।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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