संजय शर्मा, सहायक प्रोफेसर, डॉ. हरीसिंह गौर, केंद्रीय विश्वविद्यालय, सागर
दुनिया में विश्वविद्यालयों की स्थापना का इतिहास इस बात को दिखाता है कि इन्हें एक विशिष्ट उद्देश्य के तहत स्थापित किया गया। विश्वविद्यालय भौगोलिक सीमाओं और धार्मिक विश्वासों से परे सम्पूर्ण मानवता का पथ-प्रदर्शन करने की भूमिका निभाते हैं। इन ज्ञान केन्द्रों को स्थापित करने का एक अनिवार्य उद्देश्य यह भी होता है कि यह सीखने-सिखाने की परम्पराओं और गतिविधियों को समृद्ध करेंगे। सिखाने के अपने उद्देश्यों में वे आमतौर पर अधिक सक्रिय होते हैं, किन्तु सीखने की संचेतना और प्रक्रिया के संदर्भ में भारतीय विश्वविद्यालय न तो सक्रिय दिखाई पड़ते हैं और न ही इनके भीतर इस तरह की कोई पहल दिखाई पड़ती है। अधिकतर भारतीय विश्वविद्यालयों ने अपने ऐतिहासिक स्थापना के समय से ही दूसरे विश्वविद्यालयों से सीखने को कभी महत्त्व नहीं दिया, जिसका असर यह हुआ कि आज ये विश्वविद्यालय वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान के संकट से जूझ रहे हैं।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की बात करें, तो हम यह पाते हंै कि पिछले नौ सौ वर्षों में इस संस्थान ने स्वयं को आत्मनिर्भर बनाते हुए एक शैक्षिक नेतृत्वकर्ता के रूप में वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाई है। टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग (2021) के अनुसार यह संस्थान पिछले पांच वर्षों से दुनिया का सिरमौर बना हुआ है । ब्रिटेन की आर्थिक उन्नति के संदर्भ में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की बात करें तो यह विश्वविद्यालय प्रतिवर्ष स्थानीय अर्थव्यवस्था में 2.3 बिलियन पाउंड का योगदान देता है। यहां के लगभग 91 प्रतिशत विद्यार्थी स्नातक पाठ्यक्रम पूरा करने के छह माह के भीतर ही रोजगार से जुड़ जाते हैं। वैश्विक स्तर पर इस विश्वविद्यालय की पहचान के पीछे विश्वविद्यालय से सम्बद्ध अनुषंगी महाविद्यालयों, शोध केंद्रों आदि में अकादमिक, शोध कार्यों तथा उनके समाज-उपयोगी व्यावहारिक अनुभवों से समय-समय पर स्वयं को परिमार्जित करते रहने की सोच है।
यहां यह बात गौरतलब है कि भारत में विश्वविद्यालय एक दूसरे से आपस में सीखते हों, इसका कोई दस्तावेजी और आनुभविक साक्ष्य नहीं मिलता है। यही कारण है कि हमारे यहां बाकी उन्नत राष्ट्रों की तुलना में विरासतीय परम्परा के ऐसे ज्ञान केन्द्रों का अभाव है, जिन्हें आदर्श मान कर कोई संस्थागत मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सके। आश्चर्यजनक रूप से आज भी भारत के अधिकतर विश्वविद्यालय अपने एकाकी चरित्र को ही जी रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारे विश्वविद्यालयों में दूसरे श्रेष्ठ संस्थाओं से जुड़ कर परस्पर सीखने की संरचनाओं, प्रक्रियाओं एवं अवसरों को महत्त्व नहीं दिया जाता है। अधिकतर विश्वविद्यालयों के पास स्व-मूल्यांकन की कोई व्यवस्थित, ज्ञानात्मक एवं संरचनात्मक दृष्टि नहीं है, ताकि वेे अपने उत्तरोत्तर विकास के लक्ष्य को सदैव अपने सामने रख सकें। देश में कुछ ऐसे भी विश्वविद्यालय हैं, जिनके पास अंतरराष्ट्रीय शिक्षा केन्द्रों में पढ़े शिक्षक मौजूद हैं, किन्तु संस्थानों में मौजूद संरचनात्मक जड़ता, बौद्धिक पदानुक्रम एवं सीखने की संस्कृति के अभाव के कारण उनका रचनात्मक उपयोग संभव नहीं हो पा रहा है। इस संदर्भ में विश्वविद्यालयों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे एक दूसरे से सीखते हुए स्वयं को समृद्ध, नवाचारी और जीवंत बनाए रखें।
सौजन्य - पत्रिका।
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