के.एस. तोमर, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक
नेपाल भगवान पशुपतिनाथ की भूमि है। मानवमात्र के लिए वह कल्याणकारी, परम दयालु और शांति प्रदानकर्ता हैं, पर राजनीतिक उथल-पुथल ने इस आध्यात्मिक देश के लोगों को निराशा की ओर धकेल दिया है। वह भी ऐसे वक्त, जब महामारी हर गुजरते दिन के साथ भयावह रूप लेती जा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2018 में पशुपतिनाथ मंदिर और मुक्तिनाथ मंदिर जाकर पूजा-अर्चना कर दोनों देशों के लोगों के जीवन में शांति, प्रगति और समृद्धि की कामना की थी। उनका विश्वास था कि दोनों देशों के सदियों पुराने संबंध और मजबूत होंगे, पर भारत को तब झटका लगा जब कम्युनिस्टों के नेतृत्व वाली वहां की सरकार ने चीन समर्थक कट्टर नीति अपना ली। कम्युनिस्ट सरकार के प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने नया नक्शा खींचते हुए दोनों देशों के संबंधों को खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
उधर, ओली ने अवैध रूप से पिछले वर्ष 20 दिसम्बर को संसद भंग कर दी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 24 फरवरी 2021 को अंसंवैधानिक करार देते हुए उन्हें 7 मार्च को संसद में बहुमत साबित करने का आदेश दिया। हालांकि, शीर्ष कोर्ट के एक अन्य आदेश, जिसमें सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के धड़ों के एकीकरण को रद्द कर दिया गया था, के कारण बहुमत साबित करना स्थगित कर दिया गया।
इस फैसले से सत्तारूढ़ एनसीपी को एक और झटका लगा। दरअसल, आम चुनाव से पहले ओली के नेतृत्व वाली सीपीएन-यूएमएल और पुष्प कमल दहल प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) ने चुनावी गठबंधन किया था। ओली फरवरी 2018 में माओवादी सेंटर के समर्थन से प्रधानमंत्री बन गए। दोनों दलों ने मई 2018 में अपने विलय की घोषणा करते हुए नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी नाम से नया दल बनाया। कोर्ट ने आदेश दिया था कि दोनों धड़ों को अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए चुनाव आयोग में जाना चाहिए। इसका मतलब है कि 275 सदस्यों वाली संसद में ओली के पास 121 और दहल के पास 53 सांसद रह जाएंगे। इस अस्थिर परिदृश्य में मुख्य विपक्षी दल नेपाली कांग्रेस ने कम्युनिस्ट पार्टी (दहल के नेतृत्व वाली माओवादी सेंटर) और समाजबादी पार्टी की मदद से वैकल्पिक सरकार बनाने
का फैसला किया है, जिसके लिए बहुमत के जादुई आंकड़े 135 तक पहुंचना मुश्किल नहीं होगा। इससे नेपाली लोगों में आशा का किरण प्रतिबिंबित हुई है।
नेपाली कांग्रेस की यह पहल कामयाब होती है, तो यह भारत के लिए शुभ संकेत होगा। ठीक इसी तरह समाजबादी पार्टी के भी संबंध भारत के साथ मधुर हैं। इसी ने 2015 में मधेशियों के संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण के लिए अपनी सरकार को बाध्य किया था। विश्लेषकों का मानना है कि प्रचंड गुट, ओली सरकार से समर्थन वापस लेगा और नेपाली कांग्रेस से हाथ मिला लेगा। उधर, एक ओर चीन ओली को बचाने के लिए खुले रूप से अपने राजदूत होउ यांकी के जरिए नेपाल के आंतरिक मामलों में दखल दे रहा है, तो दूसरी तरफ प्रचंड की सिफारिश पर उन्हीं के दल के सदस्य चार मंत्रियों के पार्टी में न लौटने पर संसद सदस्यता खत्म कर दी गई थी। हालांकि ये सदस्य अगले छह माह के लिए मंत्री पद पर बने रहेंगे।
विशेषज्ञों का मानना है कि जब भी तीनों दल साझा न्यूनतम कार्यक्रम का प्रयास करेंगे, ओली को इस्तीफा देना पड़ जाएगा। तब गेंद राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी के पाले में आ जाएगी, जो सांसदों की संख्या के मद्देनजर वैकल्पिक सरकार की संभावनाएं तलाशेंगी।
सौजन्य - पत्रिका।
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