पत्रलेखा चटर्जी
हर तरफ मौत, तबाही और निराशा का माहौल है। मुझे फोन उठाने, व्हाट्सएप देखने या फेसबुक खोलने में डर लगता है, क्योंकि ये हर दिन किसी ऐसे व्यक्ति की मौत की खबर लाते हैं, जिन्हें मैं जानती हूं या मिली हूं। टेलीविजन के पर्दे पर अंतिम संस्कार की जलती हुई चिताएं और शोकग्रस्त परिवारों की छवियां हैं। दिल्ली के श्मशान और कब्रिस्तान बड़ी मुश्किल से अंतिम संस्कार पूरा कर पा रहे हैं। शहर के सबसे बड़े श्मशान घाटों में से एक निगमबोध घाट में मृतकों की बढ़ती संख्या को देखते हुए प्लेटफॉर्म की संख्या 36 से बढ़ाकर 63 कर दी गई है। अपने देश में ऑक्सीजन अब नया सोना है। लोग अपने प्रियजनों की जान बचाने के लिए आईसीयू बेड और चिकित्सीय ऑक्सीजन की व्यवस्था करने के लिए इधर-उधर भागते फिर रहे हैं। बहुत लोग इनकी व्यवस्था नहीं कर पा रहे। पिछले एक हफ्ते में हर दिन औसतन 3.5 लाख से अधिक संक्रमण के नए मामले देश में सामने आए हैं।
महामारी की दूसरी लहर हमारे प्रियजनों को लीलती जा रही है। हममें से बहुत से लोग, जिन्हें आईसीयू बेड और ऑक्सीजन, दोनों की जरूरत होती है, सुबह तक उन लोगों से संपर्क करने की कोशिश में जागते रहते हैं, जो इस मामले में मदद करने में सक्षम हो सकते हैं। इस गहन दुख और शोक के बीच भी कटु विडंबना को न पहचान पाना ज्यादा कष्टदायक है। जिस तरह हम अपने प्रियजनों के खोने का शोक मनाते हैं और पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहने के बावजूद समय पर आईसीयू बेड तथा ऑक्सीजन सिलेंडर न मिल पाने का रोना रोते हैं, उसी तरह हमें देश के जर्जर स्वास्थ्य ढांचे की जानकारी भी होनी चाहिए, जिसे गरीब पहले से जानते हैं, जबकि हमें इसका एहसास अब जाकर हो रहा है।
अपने प्रियजनों को खोना किसी के लिए भी क्रूर और त्रासदीपूर्ण है, चाहे वह अमीर हो, मध्यवर्गीय हो या गरीब। पर हमें खुद से एक असहज सवाल जरूर पूछना चाहिए-क्या हमने कभी तब उन लोगों के लिए अफसोस किया, जब सुविधाहीन लोगों ने समय पर स्वास्थ्य सेवा न मिलने के कारण अपने परिवार के किसी सदस्य को खो दिया, क्योंकि अस्पताल बहुत दूर था या परिवहन का कोई साधन नहीं था या अस्पताल उन्हें स्वास्थ्य सेवा मुहैया नहीं करा सके, क्योंकि वहां सुविधाएं नहीं थीं, या वहां बहुत ज्यादा भीड़ थी या वे गरीबों की पहुंच से बाहर यानी काफी महंगे थे? हममें से कितने लोगों ने यह कहने की जरूरत समझी कि यह अस्वीकार्य है और सिद्धांत व व्यवहार में स्वास्थ्य सेवा तक सबकी पहुंच मौलिक अधिकार होना चाहिए? हममें से कितने लोग यह मांग करते हैं कि जो हमसे वोटों की भीख मांगते हैं, वे यह सुनिश्चित करें कि प्रत्येक भारतीय को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा उपलब्ध हो, भले ही भुगतान करने की उसकी क्षमता हो या नहीं?
तथ्य यह है कि विकासशील देशों के मानकों के अनुसार भी भारत स्वास्थ्य देखभाल पर बहुत कम खर्च करता है। एक के बाद एक आने वाली सरकार द्वारा जन स्वास्थ्य के बारे में बड़े-बड़े दावे करने के बावजूद भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का दो प्रतिशत से भी कम स्वास्थ्य पर खर्च करता है। सरकारों की इस अदूरदर्शिता की कीमत अभी तक गरीब और जरूरतमंद ही चुकाते थे। पर कोरोना महामारी ने इसे बदल दिया है और दिखाया है कि समाज के एक सदस्य का स्वास्थ्य दूसरे के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। जबकि स्थानीय तौर पर लगाए जा रहे लॉकडाउन बताते हैं कि स्वास्थ्य के बिना धन कमाना संभव नहीं है।
पिछले साल नवंबर में आई संसदीय कमेटी की रिपोर्ट, द ऑउटब्रेक ऑफ कोविड-19 पैनडेमिक ऐंड इट्स मैनेजमेंट हमें याद दिलाती है कि देश के सरकारी अस्पतालों के कुल बेड कोविड के बढ़ते मामलों की तुलना में नाकाफी थे। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल-2019 के आंकड़े बताते हैं कि देश के सरकारी अस्पतालों में कुल 7,13,986 बिस्तर हैं, यानी प्रति 1,000 की आबादी पर 0.55 बिस्तर उपलब्ध है। रिपोर्ट के अनुसार, बारह राज्य राष्ट्रीय स्तर के आंकड़े से नीचे हैं। इस समिति ने माना है कि अस्पताल में बिस्तरों की कमी और अपर्याप्त वेंटिलेटर ने महामारी के खिलाफ रोकथाम योजना की प्रभावशीलता को और जटिल बना दिया है। जैसे-जैसे मामलों की संख्या बढ़ रही थी, अस्पताल में खाली बिस्तरों की खोज काफी कष्टकारी हो गई थी। वैसे में, मरीजों का बोझ ढो रहे अस्पतालों द्वारा बेड की कमी बताकर मरीजों को लौटा देना आम हो गया था।
रिपोर्ट कहती है कि 'एम्स, पटना में बिस्तर की तलाश में ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर इधर-उधर भटकते मरीजों की भीड़ इस बात का प्रमाण है कि मानवता को तार-तार कर दिया गया है। कमेटी स्वास्थ्य सेवा की खराब स्थिति पर चिंतित है और इसलिए सार्वजनिक स्वास्थ्य में निवेश बढ़ाने और देश में स्वास्थ्य सेवाओं/सुविधाओं के विकेंद्रीकरण के लिए उचित कदम उठाने के लिए सरकार से सिफारिश करती है।' महामारी ने इस देश की उस क्रूर सच्चाई से हमारा सामना कराया है, जिससे गरीब अपनी असहायता के साथ हमेशा ही दो-चार होते रहे हैं। जब पैसे देकर भी आप एक आईसीयू बेड या ऑक्सीजन नहीं खरीद सकते और अपने किसी प्रियजन को सांस लेने के लिए जूझते (हांफते) देखते हैं, तो उन लोगों के बारे में सोचिए, जिन्होंने अतीत में अपने किसी प्रियजन को असहायता में दम तोड़ते देखा है।
उन गरीबों के लिए समय पर स्वास्थ्य सेवा न तो सुलभ थी, न ही सस्ती। अलबत्ता जरूरी यह है कि इसके कारण हम खुद को पूरी तरह से शक्तिहीन महसूस न होने दें। इस समय कई चीजें बेशक हमारे नियंत्रण से बाहर हैं, लेकिन हमारे पास अब भी अपने राजनेताओं को जवाबदेह बनाने की ताकत है। हमें देश भर में स्वास्थ्य सेवा के लिए और अधिक संसाधनों की मांग करनी चाहिए। जो इलाज का खर्च वहन नहीं कर सकते, उन्हें भी स्वस्थ रहने और जीने का अधिकार है। आखिर वे भी भारतीय हैं।
सौजन्य - अमर उजाला।
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