कोरोना और जीने का अधिकार: जरूरतमंद को समय पर मिले इलाज (अमर उजाला)

राजेश बादल 

यह किसी को ध्यान दिलाने की जरूरत नहीं है कि हमारा संविधान भारतीय नागरिकों के स्वास्थ्य के साथ लापरवाही करने की अनुमति किसी सरकार को नहीं देता। संविधान का अनुच्छेद-21 सीधे-सीधे भारतीय नागरिकों के जीवन का दायित्व सरकार पर डालता है। इसमें हर व्यक्ति की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करना सरकार का काम माना गया है। असल में यह अनुच्छेद मानव अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के उस घोषणा पत्र को स्वीकार करते हुए जोड़ा गया था, जो दस दिसंबर 1948 को जारी किया गया था। यदि आम आदमी को वक्त पर इलाज नहीं मिलता, तो यह उसके जीने के अधिकार पर अतिक्रमण माना गया था।

कोरोना महामारी के काल में जिस ढंग से करोड़ों नागरिकों का पलायन हुआ और वे क्रूर और अमानवीय हालात में अपनी जान गंवाने को मजबूर हुए, वह भयावह है। करीब तैंतीस साल पहले शंकर बनर्जी बनाम दुर्गापुर संयंत्र वाले मामले में न्यायपालिका ने साफ-साफ कहा था कि दरअसल किसी की हालत गंभीर हो और उसे समय से इलाज न मिले, तो यह फांसी पर लटकाने से भी ज्यादा क्रूर है। यही नहीं, राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में भी अनुच्छेद 47 के हवाले से कहा गया है कि लोगों के स्वास्थ्य सुधार को राज्य प्राथमिक कर्तव्य मानेगा। पर हम देखते हैं कि शनैः शनैः राज्य ग्रामीण और अंदरूनी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर बनाने से मुंह मोड़ते जा रहे हैं। केंद्र और राज्य स्तर पर चुनिंदा शहरों में एम्स या मेडिकल कॉलेज खोलकर दायित्व निभाया जा रहा है।


जिस तरह निजी क्षेत्र ने चिकित्सा में पांव पसारे हैं, उससे सेवा का यह क्षेत्र एक बड़ी मंडी बनकर रह गया है। न्यायपालिका ने समय समय पर जिम्मेदारी निभाते हुए राज्यों और केंद्र को सांविधानिक बोध कराया है। लेकिन उसका परिणाम कुछ खास नहीं निकला। अगर सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्थाएं देखें, तो पाते हैं कि 1984, 1987 और 1992 के कुछ प्रकरणों में यह कहा गया था कि स्वास्थ्य और चिकित्सा मौलिक अधिकार ही है। इसी प्रकार 1996 और 1997 में पंजाब और बंगाल के दो मामलों में सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि स्वास्थ्य सुविधाएं देना सरकार की सांविधानिक जिम्मेदारी है।

कोरोना काल में भी अनेक राज्यों के उच्च न्यायालय इस बात को पुरजोर समर्थन देते रहे हैं कि चुनी हुई सरकारें अपने नागरिकों के इस मौलिक अधिकार से बच नहीं सकतीं। पिछले बरस तेलंगाना हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि मेडिकल इमरजेंसी के नाम पर अवाम के मौलिक अधिकारों को कुचलने की इजाजत नहीं दी जा सकती। अदालत ने इलाज के दायरे में प्राइवेट अस्पतालों को भी शामिल किया था। इस क्रम में पटना उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को कोविड से निपटने के लिए कोई कार्य योजना नहीं बनाने पर फटकार लगाईं थी। उसने कहा था कि यदि यह पाया गया कि ऑक्सीजन की कमी से मौतें हुईं हैं, तो न्यायालय अपनी शक्ति का पूरा इस्तेमाल करेगा। हाई कोर्ट के एक आला अधिकारी की ऑक्सीजन की कमी से मौत की खबर पर उच्च न्यायालय ने अपना गुस्सा प्रकट किया था। इस कड़ी में कुछ अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों ने भी राज्य सरकारों को आड़े हाथों लिया है।

करीब बारह वर्ष पहले राष्ट्रीय स्वास्थ्य विधेयक के तीसरे अध्याय में मरीजों के लिए न्याय की गारंटी दी गई थी। उसके बाद 2018 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक चार्टर स्वीकार किया था। इसमें मरीजों के लिए 17 अधिकार शामिल किए गए और कहा गया था कि अपने स्वास्थ्य और चिकित्सा का सारा रिकॉर्ड मरीज को देने के लिए अस्पताल बाध्य हैं। आपात स्थिति हो तो बिना पैसे के इलाज पाने का अधिकार भी पीड़ित को है। इतना ही नहीं, इस चार्टर के मुताबिक, एक डॉक्टर के बाद दूसरे डॉक्टर से परामर्श लेने के लिए भी बीमार को छूट दी गई है। साथ ही यह भी कहा गया कि अस्पताल भुगतान या बिल की प्रक्रिया में देरी के चलते किसी बीमार को रोक नहीं सकता और न ही शव को देने से इन्कार कर सकता है। लेकिन विनम्रतापूर्वक मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि कोरोना काल में इस चार्टर की धज्जियां बार-बार उड़ाई गईं।

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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