भारत में कोविड-19 संक्रमण के नए मामले रिकॉर्ड तेजी से बढ़ रहे हैं और महज 25 दिन में इनकी तादाद 20,000 रोजाना से बढ़कर 100,000 का आंकड़ा पार कर गई है। इस वजह से महाराष्ट्र और दिल्ली समेत देश के कई इलाकों में आंशिक लॉकडाउन और कर्फ्यू लागू किया जा रहा है। इसके बावजूद धार्मिक कार्य और चुनाव जो कोविड के प्रसार में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं, उन्हें कोविड-19 प्रोटोकॉल से एक तरह से छूट प्राप्त है। आधिकारिक रूप से 1 अप्रैल से शुरू हुए महाकुंभ मेले तथा खासतौर पर असम और बंगाल के चुनाव प्रचार में मास्क पहनने और शारीरिक दूरी जैसे बुनियादी मानकों तक का पालन होता नहीं दिखता। ऐसा तब हो रहा है जब सामान्य नागरिकों को प्रोटोकॉल का उल्लंघन करने पर जुर्माना भरना पड़ रहा है और कई लोग रोजगार गंवाने और रोजगार के कम अवसरों से परेशान हैं। इस बीच कोविड-19 की दूसरी लहर ने आपूर्ति शृंखला को बाधित करना तथा छोटे और मझोले उपक्रमों को संकट में डालना शुरू कर दिया है।
महाकुंभ इस बात का प्रबल और स्पष्ट उदाहरण है कि कोविड-19 के समय में कैसे लोग नियंत्रणहीन तरीके से भीड़ लगा रहे हैं। शुरुआती दौर में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने कह दिया था कि कुंभ में आने वालों के लिए जांच आवश्यक नहीं है। इस संबंध में होर्डिंग लग गए और न केवल हरिद्वार बल्कि उत्तराखंड में भी कोविड-19 के मामले बढऩे लगे। स्वयं मुख्यमंत्री और कई नागा साधू कोविड संक्रमित पाए गए। हालांकि केंद्र ने रावत के आदेश को तत्काल रद्द कर दिया और कहा कि हर श्रद्धालु को 72 घंटे पुरानी आरटी-पीसीआर रिपोर्ट दिखानी होगी और मास्क तथा शारीरिक दूरी का पालन करना होगा। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। जनवरी में करीब 700,000 लोगों ने गंगा नदी में पवित्र स्नान किया और अप्रैल में निर्धारित स्नान में 50 लाख लोगों के शामिल होने की आशा है।
घाट पर स्नान के दौरान सीमित स्थान पर इतनी बड़ी तादाद में लोगों के एकत्रित होने पर सुरक्षा मानकों के पालन की बात सोची भी नहीं जा सकती। यदि सरकार जवाबदेही समझती तो 2020 की कांवड़ यात्रा की तरह महाकुंभ रद्द कर देती। असल फर्क यह है कि महाकुंभ के पहले केंद्र और राज्य सरकारों ने पर्यटन के बुनियादी ढांचे में जमकर निवेश किया है। इसे रद्द करने का मतलब होता स्थानीय पर्यटन कारोबार को नुकसान। यह चिंतित करने वाली बात है लेकिन सरकार कहीं अधिक कल्पनाशील विकल्प पर विचार करते हुए महाकुंभ का आयोजन न होने से बचने वाले प्रशासनिक व्यय को हर्जाने के रूप में वितरित कर सकती थी। महाकुंभ के मामले में प्रशासनिक स्तर पर वैसा रुख नजर नहीं आता जबकि नई दिल्ली में गत वर्ष मार्च में तबलीगी जमात के लोगों के एकत्रित होने पर जबरदस्त सांप्रदायिक आलोचना हुई थी। ध्यान दें कि रमजान के आसपास मक्का गए श्रद्धालुओं को उमरा से पहले टीका लगाया जाएगा या उन्हें यह प्रमाण देना होगा कि वे हाल में कोविड से पीडि़त रह चुके हैं।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि महाकुंभ में न्यूनतम सुरक्षा प्रोटोकॉल लागू किए जाने पर द्वारका के शक्तिशाली शंकराचार्य नाराज हो गए। उन्होंने प्रतिबंधों की आवश्यकता पर प्रश्न करते हुए कहा कि जब प्रधानमंत्री मोदी और ममता बनर्जी की रैलियों में इनका उल्लंघन हो रहा है तो इनकी क्या जरूरत है। उन्होंने तंज किया कि वायरस चुनाव के दौरान नदारद हो जाता है और फिर वापस आ जाता है। उनकी बात में दम है। जब देश के सबसे ताकतवर नेता अनदेखी कर रहे हों तो प्रोटोकॉल कैसे लागू किया जाए। अभी भी बड़े पैमाने पर टीकाकरण होना शेष है। कोरोना की दूसरी लहर आर्थिक सुधार को प्रभावित कर सकती है। फिलहाल तो यही लग रहा है कि धर्म और राजनीति ने जन स्वास्थ्य को संक्रमित कर रखा है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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