के पी कृष्णन
मार्च 2020 में एक निजी बैंक ने 8,415 करोड़ रुपये मूल्य के एडिशनल टियर 1 (एटी-1) बॉन्ड को बट्टेखाते में डाल दिया। उसने ऐसा भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की एक पुनर्गठन योजना के आधार पर किया। इससे बॉन्ड बाजार में एक छोटामोटा संकट उत्पन्न हो गया। कुछ बॉन्ड धारकों ने बैंक के इस कदम को न्यायालय में चुनौती दी लेकिन मद्रास उच्च न्यायालय ने इसे बरकरार रखा। 11 मार्च, 2021 को भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने एक परिपत्र जारी करके म्युचुअल फंडों को यह निर्देश दिया कि वे पर्पेचुअल यानी बेमियादी बॉन्ड की परिपक्वता जारी करने की तिथि से 100 वर्ष मानकर चलें। यह भी कहा गया है कि कोई म्युचुअल फंड किसी खास जारीकर्ता द्वारा जारी ऐसी प्रतिभूति का 10 फीसदी से अधिक नहीं रख सकता। इससे एक छोटामोटा नियामकीय संकट उत्पन्न हो गया।
सेबी का परिपत्र इन बॉन्ड की कीमत को प्रभावित करता है और इस तरह वह बैंकों की कॉर्पोरेट वित्तीय योजनाओं को भी। इससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में जरूरी इक्विटी पूंजी हासिल करने के लिए वित्तीय संसाधनों की नई मांग तैयार होगी। यह वित्त मंत्रालय की वित्तीय योजनाओं और मंत्रालय के ही वित्तीय सेवा विभाग (डीएफएस) से टकराएगा। सरकारी बैंकों का स्वामित्व इन्हीं के पास है। कुछ अखबारों के मुताबिक डीएफएस ने सेबी को लिखा कि वह परिपत्र को वापस ले या संशोधित करे।
इस कहानी के कई पहलू हैं जिन्हें समझना होगा ताकि संस्थागत डिजाइन बेहतर हो सके। इस आलेख में हम एक तत्त्व पर बात करेंगे और वह है यह धारणा कि नियामक परिपत्र के माध्यम से नियमन कर सकते हैं।
शब्दकोश के मुताबिक परिपत्र की परिभाषा है- एक ऐसा कागज जिसका व्यापक प्रसार किया जाना हो। बुकलेट, ब्रोशर, फ्लायर, फोल्डर, लीफलेट या पैंफलेट। ठीक इसी तरह शब्दकोश के अनुसार नियमन की परिभाषा है एक ऐसा नियम या आदेश जो समुचित प्राधिकार या सरकार की नियामकीय एजेंसी द्वारा दिया जाए और जिसे विधिक अधिकार प्राप्त हों। आरबीआई और सेबी नियामक हैं जो बुनियादी तौर पर सरकार के विभागों और मंत्रालयों से अलग हैं। नियामक एक न्यायिक व्यक्ति है और उसका गठन संसद कानून बनाकर करती है। हाल के दशक में बने अधिकांश नियामकों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामों का मिश्रण देखने को मिला है।
संसद द्वारा गठित किसी एजेंसी के विधायी कामकाज अपने आप में ध्यान देने लायक होते हैं। मसलन सेबी अधिनियम उसे यह अधिकार देता है कि वह नियमन जारी करे। इससे उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक नई स्थिति बनती है जहां किसी नियामक में बैठे गैर निर्वाचित अधिकारियों को संसद कानून बनाने का अधिकार देती है। प्रतिभूति बाजार की संस्थाओं के लिए अधिकांश कानून संसद द्वारा नहीं बल्कि सेबी द्वारा बनाए गए हैं। इस बारे में विस्तार से बात करें तो भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में यह ब्योरा दिया गया है कि किसी कृत्य को चोरी या षड्यंत्र मानने के लिए कौन से कदम आवश्यक हैं। दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) बताती है कि पुलिस अधिकारी कैसे जांच करेंगे और कैसे एक न्यायाधीश दोष सिद्धि करेगा। आईपीसी और सीआरपीसी दोनों पर विधायिका का नियंत्रण है। किसी व्यक्ति के आचरण की सीमा कार्यपालिका नहीं विधायिका तय करती है और वही तय करती है कि इसके क्या नियम होंगे।
अधिकारों का विभाजन शब्द यह बताता है कि कैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच बंटवारा किया गया है। ऐसे विचार भारत की संवैधानिक योजना का हिस्सा हैं। सेबी अधिनियम का मसौदा तैयार करने वाले इस मसले से अवगत थे। नियामक एक अपवाद स्थिति हैं जहां गैर निर्वाचित व्यक्तियों को कानून बनाने का अधिकार होता है।
आधुनिक बाजारों का विकास तेज गति से होता है और ऐसे में कानूनों में विशेषज्ञता और तकनीकी ब्योरे जरूरी होते हैं। विधायी कामकाज नियामक को सौंपने का मूल इन्हीं बातों में निहित है। बहरहाल, जब गैर निर्वाचित अधिकारियों को कानूनी अधिकार दिए जाते हैं तो इसकी वैधता को क्षति पहुंचती है। इसे वैधता दिलाने के लिए तमाम प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है। आमतौर पर इस बात पर सहमति है कि नियामक के विधायी कामकाज की वैधता के लिए तीन बातें आवश्यक हैं:
(अ) नियामक को तकनीकी दक्षता हासिल करनी चाहिए और उसका प्रदर्शन भी करना चाहिए।
(ब) नियामक को सार्वजनिक मशविरा करना चाहिए और
(स) नियमन प्रक्रिया का नियंत्रण एक बोर्ड के पास होना चाहिए जिसमें स्वतंत्र निदेशकों का बहुमत हो।
मशविरा करने से गलतियां होने की आशंका कम होती है और विवाद की स्थिति में बीच का रास्ता निकालने में मदद मिलती है जिससे शर्मिंदगी के हालात नहीं बनते। हालांकि सेबी अधिनियम में मशविरे की प्रक्रिया के लिए कानूनी बाध्यता नहीं तय की गई है लेकिन सेबी ने नियमन के रूप में सामने आने वाले कानूनों के मामले में नियमन की परंपरा डाली है। बहरहाल जब सेबी द्वारा घोषित कानून परिपत्र के रूप में पेश किया जाता है तब सामान्यतया कोई मशविरा नहीं किया जाता। भारतीय न्यायपालिका लंबे समय तक नियामकों को लेकर दयालु बनी रही लेकिन अब वह बुनियादी सवालों को लेकर काफी चिंतित हो रही है। सेल्युलर ऑपरेशंस एसोसिएशन बनाम ट्राई के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद को अमेरिकी प्रशासनिक प्रक्रिया अधिनियम, 1946 के तर्ज पर कानून बनाना चाहिए जो कहता है कि उन सभी प्राधिकार के लिए सलाह-मशविरे की प्रक्रिया को अनिवार्य बनाना चाहिए जो कानून बनाने में सक्षम हैं। सन 2019 में धनराज शुगर ऐंड केमिकल्स के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आरबीआई के संकटग्रस्त परिसंपत्ति निस्तारण से जुड़े परिपत्र को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि वह अधिनियम की शक्तियों से परे है। एक संकीर्ण विधिक नजरिये से देखें तो मौजूदा परिपत्र सेबी अधिनियम की धारा 11 (1) और म्युचुअल फंड नियमन के नियम 77 के अधीन जारी किया गया है। धारा 11 का दायरा बहुत व्यापक है लेकिन नियमन 77 में कहा गया है कि परिपत्र केवल सीमित उद्देश्य के लिए जारी किया जा सकता है मसलन किसी मौजूदा नियम को स्पष्ट करना आदि। परंतु सेबी का परिपत्र बेमियादी बॉन्ड में निवेश करने वाले म्युचुअल फंड के दायित्वों में अहम बदलाव करता है। औपचारिक प्रक्रिया में जहां तकनीकी विशेषज्ञता और मशविरे से गुजरना होता है, उसे अपनाने पर काम में निश्चित तौर पर सुधार होता।
भारत में नियामक नियमन, परिपत्र, दिशानिर्देश, प्राय: पूछे जाने वाले प्रश्न, प्रेस विज्ञप्ति आदि तमाम उपाय अपनाते हैं। ये सभी अलग-अलग स्तर पर विधिक निजी व्यक्ति हैं। नियामकों के सुशासन आधारित व्यवहार के मुताबिक केवल एक विधिक उपाय है जिसका इस्तेमाल नियामक कर सकते हैं और वह है- नियमन। नियमन तैयार करने की औपचारिक प्रक्रिया संसदीय कानून में उल्लिखित है।
(लेखक भारत सरकार के सेवानिवृत्त सचिव और एनसीएईआर के प्रोफेसर हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
0 comments:
Post a Comment