गौतम चटर्जी
मृणाल सेन के बेटे कुणाल सेन ने पिछले दिनों पिता की बची-खुची पांडुलिपियां शिकागो विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी को प्रदान कर दीं। बची-खुची इसलिए, क्योंकि मृणाल सेन स्वभाव से अतीतरागी यानी नॉस्टैल्जिक नहीं थे और अपनीफिल्म स्क्रिप्ट स्वयं ही फाड़कर फेंक देते थे, या फिर संभाल कर नहीं रखते थे। वह अतीतजीवी नहीं थे, इसलिए उनकी मृत्यु के बाद अमेरिका से कोलकाता आकर कुणाल ने पहला काम यह किया कि किताबें समेत मृणाल सेन के सारे सामान उनके दोस्तों को दे दिए। बची हुई पटकथाएं एवं अन्य फिल्म सामग्री वे अपने साथ शिकागो ले गए और अब लाइब्रेरी को दे दी। बौद्धिक श्रेष्ठता के अनासक्त संरक्षण का यह अनुपम उदाहरण है। थोड़ा पीछे जाएं, तो एक फिल्म में ऐसा एक दृश्य भी देखने को मिल जाएगा। हंगरी की महिला फिल्मकार मार्टा मेजरोज ने 1969 में अपनी दूसरी फिल्म बनाई थी- बाइंडिंग सेंटिमेंट्स। इस फिल्म के एक दृश्य में नायिका एक शाम अपने दिवंगत पति के करीब दो दर्जन मित्रों को घर बुलाती हैं और उनसे अनुरोध करती हैं कि वे उनके पति की लाइब्रेरी से अपनी पसंद की कोई भी किताब चुनें और घर ले जाएं।
यह वयस्क नायिका अपने अतीत का कोई चिह्न जीवन में रखना नहीं चाहती, जो उसके पति से जुड़ा हो। थोड़ा और पीछे चलें। रूमी के समय में एक सूफी कहानी ने उस समय के लोगों का ध्यान अद्भुत ढंग से आकर्षित किया था। कहानी में एक राजा राजमहल के सारे कमरों को हीरे जवाहरात, बेशकीमती वस्तुओं और दुर्लभ पांडुलिपियों से भर देता है और अपने सभी लोगों से कहता है कि वे जो चाहें, इन कमरों से ले जाएं। इन लोगों में कई गुलाम भी हैं और गुलामों में वह भी, जो राजा से प्रेम करता है। राजा भी उससे प्रेम करता है और उस गुलाम के प्रेम की परीक्षा लेना चाहता है। उसे छोड़ सभी सब ले जाते हैं। राजा अंत में उससे पूछता है कि आखिर उसने कुछ क्यों नहीं लिया, वह क्या चाहता है, गुलाम उत्तर देता है, वह राजा को ही चाहता है। शेष सभी यानी राजा समेत सभी या तो सब ले लेना चाहते हैं या संरक्षित करने की विधियां ढूंढ लेते हैं। कभी यह विधि आसक्त होती है, तो कभी अनासक्त।
अब प्रश्न बनता है कि बौद्धिक श्रेष्ठता के संरक्षण के लिए तो हमारी निगाह तैयार है, या तो लाइब्रेरी में या फिर क्लाउड में, किंतु हम अपनी मौलिक श्रेष्ठता का संरक्षण कैसे कर सकते हैं? मौलिक श्रेष्ठता से आशय है शाश्वत जीवन-मूल्य, ऐसा प्रातिभ ज्ञान, जिसने किसी अनुशासन विशेष में कुछ जोड़ कर उसे और श्रेष्ठ बनाया है, जैसे यूक्लिड ने पाइथागोरस की ज्यामिति में, कात्यायन ने गणित के शुल्ब सूत्रों में, तारकोव्स्की ने बर्गमैन के सिनेमैटोग्राफी शिल्प में, या फिर अभिनवगुप्त ने वसुगुप्त की शैवदृष्टि में। मौलिक श्रेष्ठता बौद्धिक संपदा से भिन्न अनुभव है। संपदा संरक्षित की जा सकती है। मौलिक श्रेष्ठता संपदा नहीं बन पाती, क्योंकि उसमें समय का स्पर्श अपना स्तर या तहें नहीं बना पाता। वह प्रकट होती है और अदृश्य हो जाती है। जिसके लिए अज्ञेय कहा करते थे कि मैं लिख-लिख कर मिटाता रहता हूं।
जिसके लिए सूफी साहित्य को रेगिस्तान की खुशबू कहा गया। जिसके लिए नागार्जुन ने शून्यता सप्तति की रचना की और शून्य या ‘कुछ नहीं’ का भारतीय दर्शन बुद्ध की ओर से इस पृथ्वी पर प्रतिष्ठित हुआ। तो क्या मौलिक श्रेष्ठता को संरक्षण की जरूरत नहीं? इस पर रवीन्द्रनाथ ने एक लंबी कविता लिखी थी आमी, जो गीतांजलि में संकलित नहीं, न ही साहित्य अकादमी की रवीन्द्र रचनावली में। मनुष्य सभ्यताओं में इस मौलिक श्रेष्ठता का उपयोग क्या है? यदि पांच हजार साल की सभ्यता में हम सिर्फ लेना, वसूल करना, लूटना और संग्रह करना सीख पाए हैं, तो फिर सभ्य जीवन की इस असभ्य दुर्नीति में मौलिक श्रेष्ठता के लिए जगह कहां है? बुद्ध होने के बाद गौतम ऐसी रुग्ण सभ्यता के लिए एक चिकित्सक की तरह देह में रहे। बोध हो जाने या ज्ञान प्राप्त करने के बाद अज्ञानियों के दुख का प्रतिकार ज्ञानी की स्वाभाविक करुणा है।
इस करुणा के कारण ही कभी श्रेष्ठता के संरक्षण भाव में आसक्ति है, तो कभी अनासक्ति। वैदिक ऋषियों ने इस मौलिक श्रेष्ठता को अपौरुषेय घोषित किया और कहा कि वेद हमने नहीं रचे। जबकि उन्होंने तीन तरह की भाषा रचना की। पहली भाषा थी काव्य भाषा। इस कारण ही ऋषियों को कवि कहा गया। दूसरी भाषा की रचना ने वैदिक ज्ञान को लोगों में सहज और सुगम बनाया। यह थी आख्यान भाषा। तीसरी भाषा सबसे कठिन समझी गई। यह है संध्या भाषा। संध्या भाषा में कही गई कबीर की बात को गोरख ही समझ सकते हैं। यह वह शैली है, जिसे कोई अपवित्र नहीं कर सकता। मौलिक श्रेष्ठता को बचाने में यहां भाषा ही पर्याप्त है। दुर्नीति के समय में दुर्बोध जरूरी है, ऐसा ये संत समझते थे। अप्राकृतिक दुरावस्था और थकी हुई वृद्ध सभ्यता के इस रचनासमय में मौलिक श्रेष्ठता का वरण हम अपनी मौलिकता के उद्घाटन में कर सकते हैं, जिसके लिए हमारे पास अपार्थिव हृदय भी है और कोई विराट पवित्र मौन भी।
सौजन्य - अमर उजाला।
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