डॉ. प्रणव पंड्या
देवभूमि उत्तराखंड के द्वार पर बसा हरिद्वार का विशेष आध्यात्मिक महत्व है और 12 वर्ष के अंतराल पर होने वाले महाकुंभ का इस वर्ष यहां होना अपने आप में एक सुखद प्रसंग है। कुंभ का पौराणिक और धार्मिक महत्व सर्वविदित है। दुनिया भर के लोग कुंभ के अवसर पर गंगा में डुबकी लगाने आते हैं। प्रचीन समय से ऐसी मान्यता है कि साधु, संतों के बताए जीवन-आदर्श को व्यावहारिक जीवन में उतारने से कायाकल्प सुनिश्चित है और सफलता के द्वार भी खुलने लगते हैं। कुंभ स्नान वास्तव में एक रूपक या मेटाफर है। पुराण और धार्मिक स्तर पर इसका महत्व किसी से छिपा नहीं है, पर ऐसा नहीं है कि सिर्फ कुंभ स्नान करने भर से सबके पाप धुल जाएंगे। तो उपभोक्तावादी माहौल में जी रहे युवाओं के लिए इसकी क्या प्रासंगिकता है? वास्तव में कुंभ देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में हिंदू धर्म का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन और समागम है। इसमें सारा भारत इकट्ठा होता है।
प्रवासी भारतीयों का जमघट लगता है और विभिन्न संस्कृतियों का एक जगह मेल होता है। ऐसे मे युवाओं को धर्म की प्रगतिशील परिभाषा के साथ-साथ और देश व विश्व की संस्कृति को भी समझने का भी मौका मिलता है। यह मौका बार-बार नहीं आता है, बल्कि 12 वर्षों में एक बार ही आता है, वह भी ग्रहों और राशियों की विशेष युति होने पर
आध्यात्मिक स्तर पर देखें, तो पूरे कुंभ के दौरान मानव शरीर में कई जैव-रासायनिक परिवर्तन आते हैं और अमृत तत्व की प्रधानता बढ़ जाती है। हरिद्वार में 1998 एवं 2012 मे आयोजित कुंभ के दौरान ब्रह्मवर्चस में वातावरण और मानव में होने वाले परिवर्तनों पर शोध किया गया था, जिसमें पाया गया कि मानव में उन तत्वों की प्रधानता बढ़ जाती है, जो हमारी कार्य क्षमता और चिंतन पर बेहतर और अनुकूल प्रभाव डालते हैं और मानव में अच्छी भावनाओं व खुशियों को जन्म देते हैं।
इस वर्ष का महाकुंभ कोरोना काल में शांतिकुंज के स्वर्ण जयंती के अवसर पर आया है। इस संबंध में देव संस्कृति विश्वविद्यालय, शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में विभिन्न स्तर पर प्रयोग चल रहे हैं। यज्ञोपैथी से लेकर साधकों के भाव पक्ष, सूक्ष्म तंतुओं में होने वाले परिवर्तन को विभिन्न स्तरों पर देखा-परखा जा रहा है। अमृत मंथन को भी इसी संदर्भ में लिया जा सकता है। मानव शरीर के विषैले तत्वों का इस काल में थोड़े से प्रयत्नों से आसानी से क्षय होता है।
जिन्हें कुण्डलिनी जागरण की जानकारी है, वे जानते हैं कि महाकुंभ स्नान का समय कुण्डलिनी जागरण और ऋद्धि-सिद्धि के लिए सबसे अनुकूल काल होता है। सामान्य लोगों को भी चाहिए कि ऐसे समय का सर्वोत्तम उपयोग करें। वे भले कुंभ स्नान की तिथियों पर गंगा स्नान न कर पाएं, तो कोई बात नहीं, पर स्नान, उपासना जरूर करें, ताकि वातावरण में फैली दैविक और आध्यात्मिक शक्तियों का लाभ मिल सके। शारीरिक और मानसिक शुद्धिकरण के लिए इससे बेहतर समय और कोई नहीं हो सकता है। यहां तक कि कुंभ के दौरान धर्म के शुद्धिकरण का भी मार्ग प्रशस्त होने लगा है।
एक और तथ्य जो अध्यात्म और धर्म से थोड़ा हटकर जरूर है, पर वह भी कहीं-न-कहीं इन सबसे जुड़ा हुआ है। वह है जलवायु परिवर्तन का। चारों ओर जलवायु परिवर्तन को लेकर जो चर्चा हो रही है, कुंभ से लोगों में उसके प्रति और जागरूकता बढ़ेगी। इससे हमें जलवायु के परिशोधन के लिए काम करने का अवसर मिलेगा और इस बारे में आगे सोचने का मौका भी मिलेगा। महाकुंभ केवल धार्मिक आस्था वाले लोगों का समागम भर नहीं है, बल्कि यह ऊर्जावान लोगों और युवाओं का महापर्व है। इसमें प्रयोगधर्मिता के साथ-साथ ऊर्जा पाने, उसे सकारात्मक कार्यों में लगाने और देश भर की संस्कृतियों, आस्थाओं और धर्म के गूढ़ रहस्यों को समझने का महत्वपूर्ण अवसर मिलता है। कुंभ स्नान से सारे पापों के धुलने और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होने के रूपक के पीछे यही राज है और 21वीं सदी में इसकी प्रासंगिकता भी यही है।
-लेखक हरिद्वार स्थित देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं।
सौजन्य - अमर उजाला।
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