शंकर अय्यर
कोविड संक्रमितों के आंकड़े बिल्कुल डरावने हैं। कोविड की दूसरी लहर की तीव्रता आंकड़ों में परिलक्षित हो रही है। भारत एक बार फिर संक्रमण चार्ट में शीर्ष पर है। बुधवार को देश में कोविड-19 संक्रमण के 1.8 लाख नए मामले और 900 से ज्यादा मौतें दर्ज की गई, यानी प्रति मिनट सौ से ज्यादा नए मामले और हर दो मिनट पर एक मौत। कुछ महामारी विशेषज्ञों का आकलन है कि जिस तेजी से मामले बढ़ रहे हैं, मई के मध्य तक दैनिक मामलों की संख्या तिगुनी हो सकती है और मरने वालों की संख्या प्रति दिन 2,000 के पार जा सकती है। पूरे देश से जो परिदृश्य उभर कर सामने आता है, वह नीतिगत, राजनीतिक एवं व्यक्तिगत व्यवहार के मामले में कई स्तरों की विफलता को दर्शाता है।
सबसे अहम यह है कि ये सांदर्भिक चूकों को दिखा रहा है-सारे राज्यों में सामूहिक जवाबदेही ध्वस्त हो गई, विवेक क्वारंटीन में है और सक्रिय लोकनीति लॉकडाउन में। मामला बहुत नाजुक है। ऐसा लगता है कि फरवरी के बाद से भारत और भारतीय महामारी के ऐसे चरण में प्रवेश कर चुके हैं, जहां वे सिर्फ नियति के भरोसे हैं। कुछ लोग असाधारण होने का भरोसा करने लगे, मृत्यु के स्पष्ट सबूतों के बीच कुछ अमरत्व जैसा। महाभारत के यक्ष प्रश्न की तरह। लोगों का व्यवहार सत्ता में बैठे महत्वपूर्ण लोगों से प्रभावित होता है और दुखद है कि राजनीतिक वर्ग का 'सब ठीक है' वाला रवैया बेपरवाही को बढ़ावा देता है।
सत्ता में बैठे लोगों की विफलता त्रासदी को और गहरा करती है। शनिवार को निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों को पिछले साल उसके द्वारा जारी कोविड-19 दिशा-निर्देश का पूरी गंभीरता से पालन करने के लिए कहा। क्या चुनाव आयोग को 2020 में जारी दिशा-निर्देशों का पालन करने की याद चुनाव प्रचार और मतदान की प्रक्रिया शुरू होने के छह हफ्ते बाद दिलानी चाहिए, इससे लापरवाही की स्थिति का पता चलता है। क्या टी एन शेषन के उत्तराधिकारी कुछ बेहतर तरह से पेश नहीं आ सकते थे? यकीनन रैलियों की संख्या को सीमित करना, रैलियों में भीड़ को सीमित करना और मास्क लगाने पर जोर देने जैसा काम किया जा सकता है। रैलियों में भारी भीड़ के चित्र और वीडियो तेजी से संक्रमण फैलाने के लक्षणों को दर्शाते हैं और बताते हैं कि क्या किया जा सकता है। केंद्र और राज्यों में हर राजनीतिक दल इसके लिए जिम्मेदार है कि कैसे महामारी का प्रबंधन या कुप्रबंधन किया जा रहा है। सवाल उठता है कि उनकी इतनी रैलियां कैसे कोविड के लिए उपयुक्त थीं। एक चुनावी राज्य में एक वरिष्ठ मंत्री ने मास्क पहनने के खिलाफ तर्क भी दिया था!
दुख की बात है कि जो लोग सत्ता में हैं और लोगों को प्रभावित कर सकते हैं, वे कोई मिसाल पेश नहीं करते-जरा कल्पना कीजिए, उस संदेश की क्या ताकत होती, अगर लोगों को हर रैली की शुरुआत में ही मास्क पहनने और उचित व्यवहार करने के लिए याद दिलाया जाता! निश्चित रूप से व्यावहारिक और कुछ अनुकूल लक्ष्य हासिल करने के लिए राजनीतिक कहानी को आगे बढ़ाने वाले लोग संदेशों और सीमाओं के विपरीत तर्क दे सकते हैं, पर सवाल उठता है कि ऐसा क्यों नहीं है। एक तरफ एक उच्च न्यायालय ने कहा है कि मास्क सबको पहनना जरूरी है, भले ही कोई कार में अकेला क्यों न बैठा हो। दूसरी तरफ रैलियों में हजारों लोग बिना मास्क के इकट्ठा हो रहे हैं। क्या एक राजनीतिक रैली वायरस के लिए विशेष है या वह प्रतिरक्षित है! और अगर शादियों एवं अंत्येष्टि के लिए सीमा हो सकती है, तो राजनीतिक रैलियों के लिए क्यों नहीं?
राजनीतिक दलों और सरकारों पर सारा दोष डालना बहुत आसान है। और वास्तव में राजनेताओं और उनके शासन के पास इसका जवाब देने के लिए काफी कुछ है। समान रूप से यह पूछना भी महत्वपूर्ण है कि क्या केवल सरकारें ही इसके लिए दोषी हैं। मामले की बढ़ती संख्या और मौतें बड़े पैमाने पर जनता के लापरवाह व्यवहार के कारण हो रही हैं। गरीबी और जनसंख्या के घनत्व को देखते हुए भारत में सोशल डिस्टेंसिंग हमेशा से चुनौतीपूर्ण रही है। लेकिन सुरक्षा के लिए मास्क पहनने के प्रति लचर रवैये को क्या कहा जा सकता है? एक तो लोग मास्क पहनते नहीं हैं, अगर मास्क पहनते भी हैं, तो उसे फैशन की तरह इस्तेमाल करते हैं। कोविड को लेकर कुछ सच्चाई है-सामान्य चीजें करने में असमर्थ होने के कारण मन पर भार पड़ सकता है। लेकिन यह जान जोखिम में डालने का बहाना नहीं बन सकता है। एक व्हाट्सएप संदेश ने मनोदशा को स्पष्ट किया- 'दस लाख में से कोई एक ही लॉटरी जीत सकता है, लेकिन संक्रमण के मामले में ऐसा नहीं है।'
महामारी के दौर में जीवन और आजीविका के बीच में तालमेल बिठाना एक कठिन कार्य है। हां, सरकारों ने बाजार खोल दिए हैं, लेकिन आर्थिक जुड़ाव व्यक्तिगत और सामूहिक जिम्मेदारी से मुक्ति नहीं दिला सकता है। क्या साधन संपन्न लोगों ने वंचितों को सूचित करने के लिए मिसाल पेश करने की ताकत का इस्तेमाल किया-क्या सार्वजनिक परिवहन, इमारतों, लिफ्टों, दुकानों, बाजारों में एवं एलीवेटर पर मास्क लगाने पर जोर डाला? हालांकि कई लोगों ने ऐसा किया, पर आम प्रवृत्ति अनदेखा करने की है। और इस उपेक्षा ने जीवन और आजीविका, दोनों को नुकसान पहुंचाया है। विलियम फोस्टर लॉयड और गैरेट हार्डिन ने इस विचार को सामने रखा था कि व्यक्ति किस तरह से अपने हित में काम करता है और जनसाधारण की भलाई के खिलाफ होता है। उन्होंने इसे जनसाधारण की त्रासदी के रूप में चित्रित किया था। भारतीय संदर्भ में व्यक्तिगत व्यवहार स्वयं और सार्वजनिक हित, दोनों की अवज्ञा करता है। इस महामारी का परिदृश्य ज्ञात और अज्ञात से अटा पड़ा है। जैसा कि नोबेल पुरस्कार विजेता और व्यवहार विज्ञान के विशेषज्ञ डैनियल काहनमैन ने कहा कि हम प्रत्याशित स्मृतियों के संदर्भ में भविष्य के बारे में सोचते हैं-हम यह कल्पना करते हैं कि जैसा हम सामान्य स्थिति में याद करेंगे, वैसा ही होगा। आखिरकार भविष्य क्या हो सकता है, सामान्य स्थिति कैसी दिख सकती है, यह एक रहस्य है।
हर बार लहर के कमजोर पड़ने पर यह उम्मीद करना स्वाभाविक है कि सामान्य स्थिति बहाल हो जाएगी, लेकिन सावधानी बरतना छोड़कर लापरवाह हो जाना भयंकर गलती है। महामारी शाश्वत सतर्कता की मांग करती है और यह मौके की असमान प्रतियोगिता है-वायरस को सिर्फ एक मौके की जरूरत होती है।
सौजन्य - अमर उजाला।
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