बदल रहा है देश का कारोबारी परिदृश्य (बिजनेस स्टैंडर्ड)

नीलकंठ मिश्रा 

बीते 15 वर्षों में दुनिया भर में आर्थिक गतिविधियां और परिसंपत्ति निर्माण गैर सूचीबद्ध क्षेत्र की ओर स्थानांतरित हुआ है। विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक सकल घरेलू उत्पाद में अहम वृद्धि के बावजूद दुनिया भर में सूचीबद्ध कंपनियों का आंकड़ा 2006 से नहीं बदला है। जबकि इससे पहले के 20 वर्षों में इनकी तादाद दोगुनी बढ़ी थी।

इस अवधि के दौरान निजी इक्विटी से फंड की आवक बढ़ी और सौदों का आकार भी बढ़ा। अब तो बड़ी कंपनियों को भी बिना शेयर बाजार में सूचीबद्ध हुए इक्विटी पूंजी मिल जा रही है। जबकि पहले कंपनियां अपेक्षाकृत शुरुआती चरण में ही सूचीबद्ध हो जाती थीं। इन दिनों अक्सर 50 अरब डॉलर से अधिक मूल्य का फंड निजी तौर पर जुटाने की खबरें आम हैं।


देश में निजी इक्विटी के तेजी से बढऩे की जानकारी मिलने पर कुछ महीने पहले हमने ऐसी गैरसूचीबद्ध कंपनियों को चिह्नित करना शुरू किया जिनका मूल्यांकन एक अरब डॉलर से अधिक है। ऐसी टेक स्टार्टअप को यूनिकॉर्न के नाम से जाना जाता है। हम यह समझना चाहते थे कि ये कंपनियां अर्थव्यवस्था पर क्या असर डाल रही हैं। कुछ शोध संस्थाओं के अनुसार ऐसी कंपनियों की तादाद 35 थी तो वहीं हमें अनुमान था कि अगर अधिक सूक्ष्म तरीके से पड़ताल की जाए तो इस तादाद में कम से कम एक दर्जन का इजाफा होगा। चकित करने वाली बात है कि हमें ऐसी सौ कंपनियां मिलीं। वहीं हमारी रिपोर्ट जारी होने के बाद मिला अभिमत बताता है कि इसके बावजूद हमसे कुछ कंपनियों को गिनने में चूक हो गई।


अमेरिका और चीन में भारत से अधिक यूनिकॉर्न हैं लेकिन उनके यहां ऐसी सूचीबद्ध कंपनियां भी अधिक हैं जिनका बाजार पूंजीकरण एक अरब डॉलर से अधिक है। अमेरिका में ऐसी 2,825 और चीन में 2,126 कंपनियां हैं जबकि भारत में केवल 335। ऐसे में भारत की आर्थिक गति के लिए गैर सूचीबद्ध कंपनियां अधिक मायने रखती हैं।


हमने कुछ मानक तय करके कंपनियों का चयन शुरू किया और 50,000 ऐसी गैर सूचीबद्ध कंपनियों में से छंटनी शुरू की जिनका मुनाफा अधिक था और वृद्धि मजबूत थी। क्योंकि इसकी बदौलत ही वे पुनर्निवेश के लिए जरूरी नकदी जुटा सकेंगी और उन्हें अतिरिक्त वित्त की आवश्यकता नहीं होगी। इसी तरह घाटे में चल रही किसी कंपनी के मूल्य का बेहतर आकलन उनमें निवेश करने वाले फंड से भी लग सकता है। प्रक्रिया को सघन बनाने के लिए बड़ी निजी इक्विटी फर्मों के साथ विस्तृत चर्चा आवश्यक थी। इसके बाद हमने उन फर्म को निकाल दिया जो एक समय यूनिकॉर्न थीं लेकिन बाद में पिछड़ गईं या जो सूचीबद्ध कंपनियों, बहुराष्ट्रीय निकायों या प्रतिष्ठित कारोबारी समूहों की अनुषंगी हैं।


परिणामस्वरूप सामने आई सैकड़ों कंपनियों का क्षेत्रवार मिश्रण विविधता से भरा हुआ है। व्यापक अनुमान वाली ई-कॉमर्स, फिनटेक, शिक्षा और तकनीक (एजुटेक), खाद्य-आपूर्ति तथा मोबिलिटी कंपनियों के अलावा हमें सॉफ्टवेयर सेवा के रूप में(एसएएएस), गेमिंग, गैर बैंकिंग वित्तीय, नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादक, आधुनिक व्यापार, वितरण एवं लॉजिस्टिक्स, जैव प्रौद्योगिकी एवं औषधि जैसे तमाम क्षेत्र मिले। परिपक्व अर्थव्यवस्था वाले देशों में जहां सालाना वृद्धि दर एक अंक में हो, वहां तकनीक के सहारे ही यूनिकॉर्न बनने के लिए जरूरी वृद्धि हासिल हो सकती है।


भारत में जीडीपी वृद्धि लंबे समय से दो अंकों में है और उन क्षेत्रों में भी तेजी देखने को मिल सकती है जिनका दायरा बढ़ रहा है या जहां औपचारिकीकरण हो रहा है। ऐसे में हमारी सूची में कुछ कंपनियां आभूषण, वस्त्र और पैकेट बंद खाने जैसे पारंपरिक कारोबार जगत की भी हैं।


इनमें से दो तिहाई कंपनियां 2005 के बाद शुरू हुईं जबकि बीएसई 500 की केवल 63 कंपनियां इस सदी में शुरू हुईं जबकि 180 तो 1975 के पहले आरंभ हो गई थीं। यह एक अप्रत्याशित घटनाक्रम है जहां कंपनियां तेजी से आगे बढ़ रही हैं। निकट भविष्य में भले ही मूल्यांकन में उतार-चढ़ाव आ सकता है लेकिन हमारा मानना है कि हम अभी देश के कारोबारी परिदृश्य को नया आकार देने के मामले में शुरुआती चरण में हैं। किसी कंपनी को अपनी स्थापना के बाद यूनिकॉर्न में सात से 10 वर्ष लगते हैं और नई स्टार्टअप तथा वित्त पोषण ने बीते पांच साल में काफी गति पकड़ी है। ऐसे में अगले पांच से 10 वर्ष में ऐसी और कंपनियां सामने आ सकती हैं।


ऐसा होने की कई वजह हैं लेकिन सबसे अहम है निजी इक्विटी जो ज्यादातर मामलों में विदेशी है। प्रतिव्यक्ति आय के मामले में भारत दुनिया के पिछड़े देशों में शामिल है। इससे पहले भी एक आलेख में मैं चर्चा कर चुका हूं कि भारत विकास के जिस चरण में है वहां निजी पूंजी की आपूर्ति कम है। यह पूंजी बचतकर्ताओं के लिए अधिक जोखिमभरी भी होती है। मौजूदा विकसित देशों में से अधिकांश जब उभरते बाजार थे तब उन्होंने विदेशी पूंजी पर भरोसा किया। उदाहरण के लिए 19वीं सदी की पहली छमाही में अमेरिका को इंगलैंड, फ्रांस और नीदरलैंड जैसे यूरोपीय देशों से मदद मिली। इसमें ज्यादातर डेट की शक्ल में था और इसने आर्थिक तेजी और गिरावट का चक्र शुरू किया। भारत में यह राशि इक्विटी के रूप में आ रही है और निजी इक्विटी की फंडिंग ने बीते दशक में हर वर्ष सार्वजनिक और बाजार से आने वाली फंडिंग को पीछे छोड़ा है। विश्व स्तर पर निजी इक्विटी फंडिंग में इजाफे ने इसमें मदद की है। भारत में भी यह स्तर बढ़ा है।


जोखिम भरी पूंजी की उपलब्धता के कारण कंपनियों का विकास सामान्य से तेज हुआ है। तेज उपलब्धि का इकलौता शेष विकल्प डेट की अधिकता है। यदि परियोजना सफल हुई तो मालिक अमीर होता है और अगर विफल हुई तो उसके साथ बैंक को भी नुकसान होता है। सन 1980 के दशक में भी भारतीय उद्योगपति तेजी से नई कंपनियां बना रहे थे। परंतु समस्त चुकता पूंजी में तीन चौथाई सरकारी कंपनियों में थी। सन 1991 में उदारवाद के आगमन तक प्रति निजी कंपनी पूंजी काफी कम थी। उस वक्त भी कुछ ही समूहों के पास नए कारोबार शुरू करने के लिए जोखिम पूंजी थी। निजी इक्विटी के आगमन के बाद पहली पीढ़ी के कारोबारियों ने जोखिम लेना शुरू किया। इससे देश का कारोबारी परिदृश्य बदलने लगा।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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