वैश्विक अर्थव्यवस्था में हलचल का जोखिम? ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

अजय शाह 

अमेरिका की विधायिका ने एक महत्त्वपूर्ण और काफी बड़े प्रोत्साहन पैकेज को मंजूरी प्रदान की है। अल्पावधि में इस प्रोत्साहन पैकेज तथा अमेरिका में बड़े पैमाने पर हो रहे टीकाकरण के कारण हालात के सामान्य होते ही मांग में तेजी से इजाफा होगा। इन घटनाओं के चलते भारत के निर्यात में भी सुधार होगा। परंतु चिंता यह भी है कि कहीं इसके चलते मुद्रास्फीति में इजाफा न हो। अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने मुद्रास्फीति के लिए दो फीसदी का लक्ष्य तय किया है। जब मुद्रास्फीति संबंधी दबाव उभरेगा तो फेडरल रिजर्व दरों में इजाफा कर देगा। इस बात के हल्के संकेत हैं कि दरों में इजाफा 2023 में हो सकता है लेकिन इस बारे में काफी अनिश्चितता है। सन 2013 में भारत ने मुद्रा का बचाव जिस प्रकार किया था उससे तुलना हमारी जानकारी बढ़ाने वाली है और इससे संकेत मिलता है कि इस बार ऐसी स्थिति बनने की संभावना कम है।

अमेरिका को टीकाकरण में अच्छी सफलता हाथ लगी है। अमेरिकी वयस्कों में 31 प्रतिशत को टीके की एक खुराक जबकि 17 फीसदी को दोनों खुराक दी जा चुकी हैं। वहां प्रतिदिन टीकाकरण की दर में सुधार हो रहा है। अमेरिका में टीका लगवा चुके लोगों में अनेक अब सामान्य सामाजिक और आर्थिक स्थिति में लौट रहे हैं। इससे वस्तुओं और सेवाओं की मांग तैयार होगी।


अनुमान है कि अमेरिका में आम परिवारों ने महामारी के दौरान मांग में कमी आने की वजह से करीब 1.5 लाख करोड़ डॉलर की अतिरिक्त बचत की है। एक बार जब परिवारों को लगता है कि स्वास्थ्य और आर्थिक जोखिम कम हो गए हैं तो वे इसमें से कुछ राशि का इस्तेमाल खपत बढ़ाने के लिए कर सकते हैं। इससे मांग में सुधार होगा। यह प्रोत्साहन पैकेज वाकई बहुत बड़ा है। लैरी समर्स का कहना है कि यह प्रोत्साहन सन 2009 के प्रोत्साहन से करीब छह गुना बड़ा है। उन्होंने कहा कि यह वृहद आर्थिक प्रोत्साहन सामान्य मंदी के स्तर से बहुत बड़ा और दूसरे विश्वयुद्ध के स्तर के आसपास का है। इससे मांग तैयार होगी। कुुछ अन्य विकसित देशों मसलन ब्रिटेन आदि में भी ऐसा ही हो रहा है।


इससे दुनिया भर के प्रभावशाली परिवारों द्वारा की जाने वाली खरीदारी में बड़े पैमाने पर सुधार होगा। इससे भारतीय कंपनियों और निर्यात क्षेत्र में सुधार होगा। यह भारत के लिए सकारात्मक परिदृश्य है।


परंतु आगे चलकर यह क्या मोड़ लेगा इसे लेकर भी ङ्क्षचंता है। पहला तत्त्व है हालात को लेकर हमारी अनिश्चितता। सन 2020 और 2021 में विश्व अर्थव्यवस्था में कुछ अच्छा नहीं हुआ। यही कारण है कि हमारे अवधारणात्मक और सांख्यिकी आधारित मॉडलों के बहुत कारगर होने की संभावना नहीं है। निजी और सार्वजनिक व्यवस्था में निर्णय प्रक्रिया भविष्य के अनुमानों और परिदृश्यों पर आधारित होती है। ऐसे में गलतियां होने की संभावना भी सामान्य से अधिक रहती है।


विकसित बाजारों में मुद्रास्फीति के अचानक बढऩे को लेकर भी चिंता है। आम परिवारों के व्यवहार का सामान्य होना, अतिरिक्त बचत का इस्तेमाल और प्रोत्साहन आदि ये सभी मिलकर परिवारों की खरीद में इजाफा करेंगे। परंतु कोविड के कारण आए बदलावों में कुछ की प्रकृति स्थायी भी है। उदाहरण के लिए दुनिया भर के कई संस्थानों में घर से काम करने का सिलसिला अब निरंतर चल रहा है। वहां प्रबंधन की ऐसी तकनीक अपनाई जा रही जो भौगोलिक रूप से दूर-दूर स्थित प्रतिभाओं का प्रबंधन आसान करें। मांग में तेजी न केवल एक वर्ष पहले की तुलना में खरीद के घटक को प्रतिबिंबित करेगी बल्कि संभव है कि यह चुनिंदा वस्तुओं और सेवाओं पर केंद्रित रहे।


संभव है कि इससे मुद्रास्फीति बढ़े और अमेरिकी फेडरल रिजर्व दरें बढ़ाए क्योंकि उसने मुद्रास्फीति के लिए दो फीसदी का लक्ष्य तय किया है। इस नजरिये से अमेरिका की 10 वर्ष की दर अक्टूबर 2020 के 0.5 फीसदी से बढ़कर आज 1.7 फीसदी हो गई है। इससे आगामी 10 वर्ष में अल्प दर के उच्च मूल्य संबंधी अनुमान सामने आते हैं।


क्या यह थोड़ा अनियंत्रित हो सकता है? विकसित बाजारों में मुद्रास्फीति की स्थिति को लेकर दुनिया भर में बहुत अधिक चिंता का माहौल है। खासकर ऐसे समय में जब कंपनियां उत्पादक स्रोतों को कम मांग वाली जगहों से हटाकर ज्यादा मांग वाली जगहों पर ले जाएंगी।


कुछ लोग ऐसे परिदृश्य को लेकर चिंतित हैं जहां मुद्रास्फीति के मोर्चे पर चौंकाऊ स्थिति बनने के बाद फेडरल रिजर्व अचानक कोई कदम उठाएगा। एक खराब परिदृश्य में अमेरिकी फेडरल रिजर्व 2022 तक दरों में कुछ इजाफा करेगा।


अमेरिका के ब्याज दर डेरिवेटिव के बाजारों से संबंधित पूर्वानुमान ऐसे परिदृश्य में कुछ खास संभाव्यता नहीं रखते। बहरहाल यह कहा जा सकता है कि हालात के नियंत्रण से बाहर जाने की बात पर यकीन करने वाले लोग सोना और क्रिप्टोकरेंसी खरीद रहे हैं ताकि वे खुद को बचा सकें। सोने और बिटकॉइन की कीमतों में इजाफा एक और चैनल है जो बताता है कि ये आशंकाएं किस हद तक वैश्विक वित्तीय तंत्र का पीछा कर रही हैं। आखिरी बार फेड ने मौद्रिक नीति को सामान्य बनाने की बात तब की थी जब 2013 में अमेरिकी बॉन्ड प्रतिफल में तेज इजाफा हुआ था। उस वक्त भारत में मुद्रा का बचाव शुरू हो गया था। आरबीआई ने दरों में 440 आधार अंकों का इजाफा किया और पूंजी नियंत्रण जैसे तमाम उपाय अपनाए।


मेरा मानना है कि ऐसी घटनाएं होने की संभावना कम ही है। फिलहाल यूएस एफओएमसी के 18 में से केवल सात सदस्यों ने अनुमान जताया है कि 2023 तक दरों में इजाफा हो सकता है। इसके अलावा फेडरल रिजर्व भी इस बात से अवगत है कि दरों में तेज इजाफे का क्या परिणाम होगा। ऐसे में शायद वह मौद्रिक नीति के सामान्य होने को लेकर सचेत होगा।


फेडरल रिजर्व ने 2013 के दौर से सबक लिया है और वह आने वाले वर्षों में सावधानीपूर्वक कदम उठाएगा। वर्ष 2013 की घटनाओं ने भारत को भी सबक दिए। मौद्रिक नीति की बुनियाद मजबूत की गई। इसके लिए मुद्रास्फीति को निशाना बनाने की औपचारिक व्यवस्था कायम की गई। भारत की मौद्रिक नीति में पर्याप्त क्षमता है और नीतिगत दरों में 440 आधार अंक का इजाफा संभव नहीं दिखता। भारत की जिन कंपनियों ने विदेशों में उधारी ली है, जिनका आयात काफी अधिक है या जो भारत में ऐसी वस्तुएं खरीदते हैं जिनकी कीमत आयात समता के अनुसार है, उन्हें विनिमय दर को लेकर अपने आर्थिक जोखिम का बचाव करना होगा।


(लेखक स्वतंत्र आर्थिक विश्लेषक हैं)

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड। 

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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