अजित बालकृष्णन
एक दिन भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) के दर्जनों छात्रों के एक समूह को ऑनलाइन गणितीय मॉडल-निर्माण पढ़ाते समय मैंने उनका जोश बढ़ाने की मंशा से कहा, 'बच्चों, अब हम गॉसियन वितरण मॉडल की 200वीं वर्षगांठ मनाएंगे।' मुझे लगा था कि मेरे इस ऐलान से सारे छात्र खुशी से उछल पड़ेंगे लेकिन मुझे तो उनकी चुप्पी एवं उलझन भरे चेहरों का सामना करना पड़ा।
आखिरकार एक छात्र ने थोड़ी हिम्मत बांधी और मुझसे पूछा, 'सर, आपका मतलब उसी गॉसियन वितरण सिद्धांत से है ना, जिसका इस्तेमाल हम मशीन लर्निंग एवं कृत्रिम मेधा (एआई) में रोजाना करते हैं। क्या यह सिद्धांत इतना पुराना है?' मैंने इस पर सकारात्मक अंदाज में सिर हिलाते हुए कहा, 'योहान कार्ल फ्रेडरिक गॉस का जन्म 30 अप्रैल, 1777 को जर्मनी के ब्रंसविक शहर में हुआ था। उन्होंने ही 1820 के दशक में वितरण का अपना मशहूर सिद्धांत पेश किया था। और 1855 में उनका देहांत हो गया था।'
एक अन्य छात्र ने पूछा, 'सर, आखिर किस वजह से 200 साल पहले एक आदमी ने ऐसा गणितीय सिद्धांत बनाने के बारे में सोचा जिस पर महारत हासिल करने में हमें आज भी दिक्कत होती है?'
मुझे उनसे कहना पड़ा कि मैं इस सवाल का जवाब अपने अगले शिक्षण सत्र में दूंगा और इस तरह मैंने यह समझने के लिए समय मांग लिया कि कोई शख्स किस वजह से एक नया गणितीय प्रतिमान बनाने के लिए प्रेरित होता है? क्या ऐसा इसलिए होता है कि वे इतने जीनियस होते हैं कि उनके मन-मस्तिष्क में ऐसे ख्याल अनायास ही आ जाते हैं? या वे असली दुनिया की समस्याएं सुलझाने के क्रम में कुछ नया सामने लेकर आ जाते हैं? गॉस का जीवन एवं कार्य इस सवाल का जवाब तलाशने का एक बढिय़ा शुरुआती बिंदु है। जब मैंने इस बारे में खोजबीन शुरू की तो इस रहस्य पर रोशनी पडऩे लगी।
गॉस ने 1820 के दशक में हनोवर सरकार के लिए विशाल भौगोलिक क्षेत्रों के सर्वेक्षण में वैज्ञानिक सलाहकार के तौर पर काम किया था। इसका मकसद उन भू-भागों का नक्शा तैयार करना था जो हनोवर शासन से ताल्लुक रखते थे। वर्ष 1648 में वेस्टफेलिया की संधि के बाद आधुनिक राज्य व्यवस्था के उदय के साथ ही एक राष्ट्र-राज्य की संकल्पना परवान चढऩे लगी थी। उसके बाद से यूरोप में एक राष्ट्र-राज्य केंद्रीय रूप से नियंत्रित इकाइयों पर आधारित होते थे जिनकी भौगोलिक सीमाएं भी स्पष्ट रूप से परिभाषित हों। धरती की वक्रता को ध्यान में रखते हुए नक्शा बनाना था। इस काम के दौरान गॉस वे सारी तकनीकें लेकर आए जिन्हें आज हम गॉसियन तकनीक के नाम से जानते हैं।
इसी तरह प्राचीन भारत के विद्वानों ने दशमलव पद्धति, रैखिक भविष्यवाणी मॉडल और बीजगणित की खोज किन वजहों से की थी? इसका यह जवाब अचरज में नहीं डालता है कि भारत में गणित मानचित्रण का नहीं बल्कि ज्योतिष-विज्ञान का अनुचर हुआ करता था। गणितीय रुझान रखने वाले भारतीय जानकार चंद्रमा, सूर्य, ग्रहों एवं सितारों की चाल की भविष्यवाणी करने में अपने कौशल का इस्तेमाल कर आसानी से जीविका कमा सकते थे। मसलन, ऐसी तमाम गणितीय तकनीकों को समाहित करने वाला वेदांग ज्योतिष का संकलन 12वीं एवं 14वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच होने की मान्यता है।
ग्रहों की चाल के आधार पर भविष्यवाणी करने की क्षमता हासिल करने की कोशिशें तभी से चलती आ रही हैं। ऐसे गणितीय नवाचार के लिए जज्बा किसने पैदा किया? जहां तक मुझे लगता है, इसके पीछे सबसे बड़ी ताकत ज्योतिष-विज्ञान की थी। बहुत पुराने समय से ही भारत में अगर आपको ऐसी प्रतिष्ठा मिल जाती है कि आप चंद्रमा, सितारों एवं ग्रहों की चाल और ग्रहण जैसी खगोलीय घटनाओं की सटीक गणना कर सकते हैं तो फिर आपके द्वारा की जाने वाली ज्योतिषीय भविष्यवाणियों को भी लोग काफी उत्सुकता से सुनते थे। हरेक आर्थिक समूह के हम भारतीय तब और अब भी ज्योतिषीय परामर्श के लिए बढिय़ा रकम बतौर शुल्क देने को तैयार रहते थे। ऐसा तब है जब ग्रहों की चाल एवं ज्योतिषीय भविष्यवाणी ( किससे और कब शादी करें, घर की नींव की खुदाई कब शुरू हो जैसे सवाल) के बीच का रिश्ता संदेहास्पद रूप से कमजोर है। लिहाजा भारत में करीब एक हजार साल तक गणित में आपकी महारत होने से आप एक समृद्धि-भरा जीवन जी सकते थे।
भारत में गणित का नया सवेरा तब हुआ जब नेहरू काल में देश आर्थिक नियोजन के दौर से गुजर रहा था। वर्ष 1950-64 की इस अवधि में प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने कई गणितीय मॉडल बनाए और उनके द्वारा विकसित महालनोबिस मॉडल एवं गणित की नई शाखा सांख्यिकी का बौद्धिक विमर्श पर दबदबा रहा। सांख्यिकी को लेकर पैदा हुए बौद्धिक उत्साह से यह निष्कर्ष निकला कि भारत के लिए तीव्र आर्थिक वृद्धि का भविष्य इसमें निहित है कि भारतीय राज्य स्टील, रसायन, उर्वरक, बिजली, परिवहन उपकरण के उत्पादन वाली मशीनरी खड़ा करने में बहुत अधिक निवेश करे। फिर तो सांख्यिकी का विज्ञान आर्थिक नियोजन का अनुचर बन गया और उन्नत सांख्यिकी की डिग्री से लैस व्यक्ति किसी भी पद एवं वेतन की मांग कर पाने की स्थिति में आ गए।
यह सिलसिला 1980 का दशक आते-आते खत्म हो गया जब दुनिया के साथ भारत भी नियोजित अर्थव्यवस्था के विस्तारित सांख्यिकीय मॉडलों में अपना भरोसा गंवा बैठा और तथाकथित नियंत्रण-मुक्त बाजार (लैसेज-फेअर) की ओर झुकने लगा था। मुक्त बाजार को नियोजित अर्थव्यवस्था के ठीक उलट माना गया। ब्रिटेन में प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर और अमेरिका में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन जैसे नेता इस संकल्पना की पुरजोर वकालत कर रहे थे।
इस तरह राजनीतिक सत्ता के गलियारों में एक विज्ञान के रूप में सांख्यिकी को पिछली सीट पर बैठना पड़ा लेकिन उस मुक्त बाजार की व्यवस्थाओं में भी उसने अपनी जगह जल्द ही तलाश ली। शेयर बाजार खासकर वॉल स्ट्रीट की कारोबारी गतिविधियां सांख्यिकी के बगैर अधूरी थीं। 'क्वांट' कहे जाने वाले मात्रात्मक कारोबारी उच्च क्षमता वाले कंप्यूटरों की मदद से गूढ़ मॉडल तैयार कर इतने ताकतवर हो गए कि अमेरिकी शेयर बाजारों में होने वाले करीब एक तिहाई कारोबार का नियंत्रण उनके हाथ में आ गया था। स्टॉक जमा करने और कंपनी की परिचालन गतिविधियों के बारे में प्रबंधन से सवाल पूछने के परंपरागत तरीके अतीत की बात लगने लगे। यानी एक बार फिर सांख्यिकीविद एवं गणितज्ञ के कुनबे का नियंत्रण स्थापित हो चुका था।
इंटरनेट के दौर में तो गणित और सांख्यिकी का दबदबा और भी बढ़ गया है। कृत्रिम मेधा आंदोलन के नेता ज्योफ्रे ई हिंटन जैसे लोगों की प्रतिभा के दम पर अब यह तय होने लगा है कि आपको कौन सी खबर देखने या पढऩे को मिलेगी, ऑनलाइन खरीदारी के लिए आपके समक्ष किन उत्पादों को पेश किया जाएगा, आपके लिए सबसे बढिय़ा जीवनसाथी कौन होगा, आपको किस नेता को मत देना चाहिए और सबसे बढ़कर, विज्ञापन राजस्व बढ़ाने के क्या तरीके हों?
एक पल के लिए अपने कदम पीछे खींचकर हमें यह सवाल पूछना चाहिए कि शंकराचार्य से लेकर गॉस और फिर महालनोबिस से लेकर ज्योफ्रे हिंटन तक के काल में सांख्यिकी एवं गणित बौद्धिक जमात के लिए सत्ता की सवारी का एक जरूरी साधन ही रहा है।
इक्कीसवीं सदी में क्या हमें गणित एवं सांख्यिकी के लिए एक व्यवस्थित तरीका तलाशना चाहिए कि समाज की भलाई पर ध्यान दिया जा सके, न कि कुछ लोगों के ही वर्चस्व एवं वित्तीय खुशहाली पर ध्यान रहे?
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
0 comments:
Post a Comment