कोविड–१९ महामारी के बेकाबू होने में अब भी किसी को संदेह हो तो राजधानी दिल्ली में २५ अप्रैल को लगातार पांचवें दिन अस्पतालों में ऑक्सीजन का प्राणघातक संकट बने रहने से यह दूर हो जाना चाहिए। इससे पहले दो दिनों में राजधानी के दो बड़े अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से करीब चालीस मौतों की खबर आ चुकी थी। दर्जनों छोटे और मंझले अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से या ऑक्सीजन की कमी के चलते अस्पतालों से डिस्चार्ज किए गए या भर्ती ही नहीं किए गए मरीजों की मौतों का कोई आंकड़ा तो खैर उपलब्ध नहीं है।
राजधानी का यह उदाहरण इसलिए नहीं दिया जा रहा है कि ऑक्सीजन का यह संकट राजधानी तक ही सीमित है। भले ही दिल्ली‚ महाराष्ट्र आदि की सरकारों के विपरीत उत्तर प्रदेश‚ हरियाणा‚ मध्य प्रदेश‚ गुजरात आदि राज्यों की सरकारें अपनी पार्टी की केंद्र सरकार को शÌमंदा न करने की चिंता में इस संकट के होने को ही नकारने की कोशिश कर रही हों‚ पर सचाई किसी से छुपी हुई नहीं है कि कोविड की वर्तमान सुनामी में अस्पताल के बैडों‚ वेंटिलेटरों‚ रेमडेसिविर आदि दवाओं की भयावह कमी पड़़ने की ही तरह ऑक्सीजन की भी भारी कमी पड़ गई। कहने की जरूरत नहीं है कि ऑक्सीजन की यह कमी इससे और भी घातक हो जाती है कि कोविड–१९ का संक्रमण गंभीर रोगियों के फेफड़ों पर खास तौर पर हमला करता है और इस संक्रमण से गंभीर रूप से पीडि़तों के लिए ऑक्सीजन ही सबसे महkवपूर्ण जीवनरक्षक है। राज्य सरकारों के खबरों को दबाने तथा संकट को छुपाने के सारे प्रयासों के बावजूद न सिर्फ मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से ऑक्सीजन के अभाव में अस्पतालों में मरीजों के दम तोड़़ने की खबरें आ रही हैं‚ बल्कि हरियाणा जैसे राज्यों में भी सरकारों का अपने इलाके में मौजूद ऑक्सीजन प्लांटों से दूसरे राज्यों के लिए ऑक्सीजन की आपूÌत रोकने जैसे कदम उठाना ऑक्सीजन के संकट की गंभीरता का ही सबूत है। इसी तरह‚ उत्तर प्रदेश सरकार का निजी तौर पर ऑक्सीजन सिलेंडर खरीदने पर कड़ी पाबंदियां लगाने जैसी कार्रवाई करना भी राज्य में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं होने के दावों को झुठलाता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि ऑक्सीजन के अभाव में देश भर में दम तोड़़ने वाले सैकड़ों लोगों का खून केंद्र सरकार के ही हाथों पर है। इसकी वजह सिर्फ इतनी ही नहीं है कि देश में ऑक्सीजन का वितरण खास तौर पर पिछले साल से राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून के लागू रहते हुए पूरी तरह से केंद्र सरकार के ही अधीन है। चिकित्सकीय ऑक्सीजन की कुल मिलाकर उपलब्धता से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में उसके वितरण तक में अगर कोई समस्याएं हैं‚ तो उसके लिए कोई अनाम ‘सिस्टम' नहीं‚ वर्तमान केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है। याद रहे कि यह कोई अचानक आ पड़ी मांग को पूरा करने में विफल आने भर का मामला नहीं है। बेशक‚ यह निÌववाद है कि कोविड–१९ की इस दूसरी लहर में अस्पतालों में भर्ती मरीजों में ऐसे मरीजों का अनुपात उल्लेखनीय रूप से बढ़ा है‚ जिन्हें ऑक्सीजन देने की जरूरत पड़ रही है। और यह तो स्वयंसिद्ध ही है कि महामारी की दूसरी लहर में संक्रमणों का दैनिक आंकड़ा‚ पहली लहर के शीर्ष के स्तर से‚ तीन गुने से भी ज्यादा हो चुका है और इस पंक्तियों के लिखे जाने तक साढ़े तीन लाख की रेखा पार करने ही वाला था। स्वाभाविक रूप से उपचार के लिए ऑक्सीजन की जरूरत कोविड से पहले के दौर के मुकाबले काफी ज्यादा बढ़ गई है।
लेकिन ऑक्सीजन की मांग में ऐसी बढ़ोतरी न तो किसी भी तरह से अप्रत्याशित है‚ न अचानक आई है। पिछले साल मार्च के आखिर में पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा करने के साथ केंद्र सरकार ने कोविड–१९ की चुनौती से निपटने के कदमों के लिए शासन के उच्चाधिकारियों को लेकर जिन ११ एम्पावर्ड ग्रुपों का गठन किया गया था‚ उनमें से एक ग्रुप ने‚ जिसे उठाए जाने वाले कदमों के सिलसिले में निजी क्षेत्र‚ एनजीओ तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ तालमेल करने का जिम्मा दिया गया था‚ १ अप्रैल‚ २०२० को हुई अपनी दूसरी ही बैठक में चिकित्सकीय ऑक्सीजन की कमी होने के संबंध में आगाह कर दिया था। लेकिन मौजूदा संकट गवाह है कि केंद्र सरकार ने जरूरी कदम नहीं उठाए। यह इसके बावजूद था कि चेतावनी जिस समय दी गई थी‚ तब तक देश में कोविड के सिर्फ २‚००० केस थे‚ जबकि सितम्बर के आखिर तक‚ जब देश में कोविड के केस पहली लहर के अपने शीर्ष तक पहुंचे थे‚ चिकित्सकीय ऑक्सीजन का उपयोग ३००० मीट्रिक टन प्रति दिन तक पहुंच चुका था‚ जो कि कोविड के पहले के दौर से तीन गुना ज्यादा था। लेकिन हर जरूरत का समाधान निजी क्षेत्र में ही खोजने वाली केंद्र सरकार को‚ इस मामले में खुद कुछ करने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई क्योंकि तब तक तो चिकित्सकीय ऑक्सीजन के उत्पादन का आंकड़ा‚ खपत के आंकड़े से ठीक–ठाक ज्यादा नजर आ रहा था।
यहां तक कि स्वास्थ्य संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने भी पिछले अक्टूबर में अपनी बैठक में चिकित्सकीय ऑक्सीजन की ‘उपलब्धता तथा उचित दाम' का मुद्दा उठाया था। सरकार से मांग की थी कि ‘ऑक्सीजन के पर्याप्त उत्पादन को प्रोत्साहित करे ताकि अस्पतालों की मांग के हिसाब से आपूÌत सुनिश्चित की जा सके।' संसदीय कमेटी के चेताने का भी सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। और तो और जब महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में दूसरी लहर प्रकट भी हो गई‚ तब भी केंद्र सरकार का कोविड पर विजय का खुमार नहीं टूटा। इसी ३० मार्च को बढ़ते संक्रमण से जूझ रही महाराष्ट्र की सरकार ने राज्य में लगी ऑक्सीजन उत्पादन इकाइयों के लिए आदेश जारी कर दिया कि उनके ऑक्सीजन उत्पादन के ८० फीसद का चिकित्सकीय ऑक्सीजन के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा। इसके भी तीन हफ्ते बाद‚ २२ अप्रैल से ही केंद्र सरकार उद्योगों के लिए ऑक्सीजन की आपूÌत रोकने और उसे चिकित्सकीय ऑक्सीजन के रूप में ही उपलब्ध कराने का फैसला कर पाई। लेकिन तब तक तो ऑक्सीजन की कमी से देश के अभिजात अस्पतालों तक का दम घुटना शुरू हो चुका था।
अब प्रधानमंत्री ने देश भर में ५५१ सार्वजनिक अस्पतालों में पीएमकेयर फंड़ से ऑक्सीजन संयंत्र लगवाने की घोषणा की है। लेकिन क्या यह आग लगने के बाद कुआं खोदने का ही मामला नहीं हैॽ सवाल यह भी है कि क्या यह कुआं वाकई खुदेगा भीॽ पिछले साल केंद्र सरकार ने करीब डेढ़ सौ जिला चिकित्सालयों में ऑक्सीजन संयंत्र लगवाने का ऐलान किया था और उसके लिए २०० करोड़ का आवंटन भी कर दिया था। लेकिन साल भर में बने कुल ३२ संयंत्र। उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री की घोषणा का भी ऐसा ही हश्र नहीं होगा।
सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।
0 comments:
Post a Comment