वुहान शहर से कोविड-19 महामारी के दुनिया भर में फैलने से पहले कई विकासशील देशों ने चीन को विकास साझेदारियों या विकास कार्यों के लिए ऋण के मामले में पहले विकल्प के रूप में देखना शुरू कर दिया था। परंतु महामारी से एक बात यह भी सामने आई कि चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के नेतृत्व में बाहरी दुनिया से जो संबंध कायम किए गए हैं उस पूरी प्रक्रिया में बुनियादी खामी है। शी चिनफिंग के कार्यकाल में चीन की नई कूटनीतिक आक्रामकता की बात दोहराए जाने के बावजूद यह तथ्य बरकरार है कि विकास संबंधी साझेदारियों की राह में गंभीर गतिरोध उत्पन्न हुए हैं। ऐसा उन देशों में भी हुआ है जो चीन के पूंजी निवेश और सहायता की पेशकश को लेकर खासे संवेदनशील थे।
कर्ज की बाधा से जूझ रहे देशों में कोविड-19 महामारी का आर्थिक प्रभाव सबसे अधिक महसूस किया गया। ये वे देश हैं जो पहले ही कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं या विभिन्न वजहों से जिनकी पहुंच पूंजी बाजार तक नहीं हो पा रही और उन्हें महामारी के असर से निकलने में दिक्कत हो रही है। इनमें से कई देश वो हैं जिन्हें चीन की कर्ज देने वाली एजेंसियों ने निशाना बनाया। जर्मनी के कील इंस्टीट्यूट ने विश्व अर्थव्यवस्था को लेकर हाल में जो काम किया है उसमें कहा गया है कि चीन के कुल कर्ज में आधा ऐसा है जिसे सार्वजनिक रूप से दर्ज नहीं किया गया। जो 50 देश चीन से सीधे कर्ज लेने वाले देशोंं में सबसे आगे हैं उनके बाहरी कर्ज में औसतन 40 फीसदी चीन से लेना बताया गया है। कील आईडब्ल्यूई के अर्थशास्त्रियों के अनुसार, 'चीन के विदेशों में दिए गए सरकारी ऋण में अपेक्षाकृत ऊंची ब्याज दर होती है और उनकी परिपक्वता अवधि कम होती है। जबकि विश्व बैंक या ओईसीडी सरकारों जैसे अन्य आधिकारिक कर्जप्रदाताओं का ऋण रियायती दरों पर दिया जाता है।' चीन से मिलने वाली 'सहायता' ठोस अधोसंरचना पर केंद्रित होती है। अमेरिका के विलियम ऐंड मैरी कॉलेज में एडडाटा कलेक्टिव के काम के मुताबिक चीन विदेशों में किए जाने वाले खर्च में 90 फीसदी बुनियादी ढांचे पर व्यय करता है।
इससे समझा जा सकता है कि बेल्ट और रोड पहल को लोकप्रियता क्यों मिली। दुनिया बुनियादी क्षेत्र में कर्ज के लिए जूझ रही थी क्योंकि अधिकांश कर्जदाता शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में निवेश कर रहे थे। जो देश बुनियादी ढांचे के लिए ऋण देते भी थे वे ऐसे देशों को कर्ज नहीं देना चाहते थे जहां कोई संघर्ष चल रहा हो, राजनीतिक भ्रष्टाचार हो या पारदर्शिता का अभाव हो। चीन के कर्ज के साथ ऐसी दिक्कत नहीं थी। विकास आधारित कूटनीति की समस्याएं महामारी केे पहले ही सामने आने लगी थीं। मसलन राजनीतिक प्राथमिकता वाली परियोजनाएं जरूरी नहीं कि कर्जदाताओं को उचित प्रतिफल भी दें। लेकिन अगर चीन कर्जदार देशों को मजबूर करता कि वे पूंजी पर प्रतिफल लौटाने का वादा करें तो इससे समय के साथ पूरी परियोजना दिक्कत में आ जाती। मिसाल के तौर पर ताप बिजली संयंत्रों की ओर से चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर पर किए व्यय में यही हुआ। यह कॉरिडोर कम और कोयला संयंत्रों वाला मार्ग अधिक है जिसने 17 से 20 प्रतिशत प्रतिफल की गारंटी दी।
इस बीच महामारी के कारण कर्जदार देशों पर बोझ बढ़ा और वे दोबारा बातचीत को मजबूर हुए। चीन के कर्जदाताओं को प्रतिफल पर दोबारा विचार करने के लिए मनाना मुश्किल था। पश्चिमी या बहुपक्षीय कर्जदाताओं से चीनी बॉन्डधारकों को उबारने की चाह भी कठिन थी। हो सकता है चीन के सरकारी कर्जदाताओं ने विभिन्न देशों को कर्ज के जाल में फंसाया हो, या शायद ऐसा न भी हुआ हो। परंतु संकट की घड़ी में चीन के भारी कर्ज का कहीं और से निपटान मुश्किल है। चिनफिंग का दुनिया में चीन का प्रभाव बढ़ाने का मॉडल विफल हो चुका है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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