सन 1992 में अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान बिल क्लिंटन ने एक ऐसा जुमला बोला था जो अमर हो गया। उन्होंने कहा था, 'यह अर्थव्यवस्था का मामला है, मूर्ख!' क्या भारत में नरेंद्र मोदी पर यह कारगर होगा?
लोकतांत्रिक देशों में चुनाव दर चुनाव यह जुमला दोहराया गया। इस विचार में दम था और इसे इस बात से भी समझ सकते हैं कि क्लिंटन के लिए यह जुमला तैयार करने वाले सुप्रसिद्घ राजनीतिक सलाहकार जेम्स कारविल ने दुनिया के दर्जनों अन्य नेताओं को भी यह मशविरा दिया। उन्हें प्रशांत किशोर का वैश्विक प्रतिरूप मान सकते हैं। उनका यह जुमला हर काल में हर भाषा में कारगर रहा। अभी हाल तक करीब चौथाई सदी का वक्त ऐसा रहा जब वह नेता जीता या दोबारा निर्वाचित हुआ जिसने बेहतर अर्थव्यवस्था का वादा किया या बेहतरी लाया। सन 2016 में डॉनल्ड ट्रंप इसी वादे पर जीते। 2014 में मोदी भी ऐसे ही जीते थे। अब दुनिया भर में हालात बदल गए हैं। एक नजर भारत पर डालते हैं। मोदी के शुरुआती दो साल के बाद अर्थव्यवस्था में ठहराव आया और फिर गिरावट आने लगी। इसकी शुरुआत 2016-17 में नोटबंदी से हुई। पिछली आठ में से सात तिमाहियों में वृद्घि दर घटी है। ऋणात्मक वृद्घि के लिए महामारी को दोष दिया जा रहा है लेकिन उससे पहले ही भारत हर सामाजिक आर्थिक संकेतक पर पिछड़ रहा था।
हमें पता है कि मोदी ने 2014 का चुनाव आर्थिक वृद्घि, रोजगार और विकास के गुजरात मॉडल के वादे पर जीता था। लेकिन शुरुआती 24 महीनों को छोड़ दें तो वे उन वादों पर कभी खरे नहीं उतरे। यदि अर्थव्यवस्था केंद्र में रहती तो वह 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव इतनी अच्छी तरह नहीं जीतते। उस समय तक नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था की हवा निकाल दी थी। बेरोजगारी, कारोबार का ठप होना और किसानों की नाराजगी शुरू हो चुकी थी। असहाय नजर आ रहे विपक्ष और हम जैसे गिने चुने संपादकीय लिखने वालों के अलावा किसी को इन बातों की परवाह नहीं थी।
सन 2019 की गर्मियों तक अर्थव्यवस्था औंधे मुंह थी। बेरोजगारी खतरनाक स्तर तक बढ़ चुकी थी। कुछ आंकड़े तो इतने शर्मनाक थे कि मोदी सरकार ने या तो उन्हें छिपा लिया या फिर दोबारा तैयार किया। जीडीपी आंकड़ों की गणना का तरीका बदल दिया गया ताकि वे बेहतर दिखें। मुद्रास्फीति के अलावा हर आर्थिक संकेतक पर सरकार की स्थिति खराब दिखी लेकिन चुनाव में मोदी और बड़े बहुमत से जीते। एक माह बाद हमें पता चल जाएगा कि पांच राज्यों के मतदाताओं ने क्या निर्णय किया है। पार्टी को उतनी सीटें नहीं मिलेंगी जितनी मिलने का अमित शाह पश्चिम बंगाल में दावा कर रहे हैं लेकिन जो भी सीटें मिलेंगी वे भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति तो नहीं दर्शाएंगी। आजाद भारत के इतिहास में यह पहला वर्ष होगा जब वृद्घि दर दो अंकों में ऋणात्मक रहेगी। इसके लिए महामारी को दोष दिया जा सकता है। उसने कई जिंदगियां तबाह कीं, लोगों को बेरोजगार किया और बचत को नुकसान पहुंचाया लेकिन अर्थव्यवस्था की हालत पहले से खराब थी। सामान्य राजनीतिक हालात में विपक्ष को आसानी से जीत जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होगा। सन 1992 के क्लिंटन के जुमले पर सवाल यहीं उठता है। मोदी की जीत के पीछे क्या कारण है? खराब आर्थिक हालात के बावजूद वह कैसे जीत रहे हैं? ऐसा केवल भारत में नहीं हो रहा है। डॉनल्ड ट्रंप के साथ चाहे जो दिक्कत हो लेकिन अर्थव्यवस्था के अच्छी स्थिति में होने के बावजूद वह चुनाव हार गए। उनके पुराने वोट बरकरार रहे और नए वोट भी मिले लेकिन पहचान, नस्लभेदी और वायरस जैसे अन्य कारकों ने उन्हें हरा दिया। बाइडन जीते लेकिन उन्होंने भी आर्थिक तरक्की का वादा नहीं किया था। दूसरी ओर पुतिन का मामला है। वास्तव में इस सप्ताह का स्तंभ मैं फाइनैंशियल टाइम्स में रुचिर शर्मा के स्तंभ से प्रेरित होकर लिख रहा हूं जहां उन्होंने कहा कि पुतिन ने न केवल रूस को प्रतिबंधों से बेअसर रखा है बल्कि वह खास आर्थिक प्रगति के बिना भी चुनाव जीत रहे हैं। रूस की चुनाव प्रक्रिया के बारे में हम बहुत कुछ कहते हैं, चुनिंदा उदाहरणों को छोड़ दें तो हमारे यहां अभी भी यह प्रक्रिया काफी साफ-सुथरी है। इसके बावजूद इसमें दो राय नहीं कि वह लोकप्रिय हैं और निष्पक्ष चुनाव में भी जीतेंगे। यह कैसे हो रहा है?
पुतिन लोगों की असुरक्षा का लाभ ले रहे हैं। अस्थिरता, राजनीति और अर्थव्यवस्था की यह असुरक्षा उनके कार्यकाल से पहले से है। वहां लोगों के लिए स्थिरता पहली प्राथमिकता है। अर्थव्यवस्था तो बाद में भी सुधर सकती है। यही हम इसे आधार मानें तो कह सकते हैं कि स्थिरता राष्ट्रवादी आत्मगौरव को जन्म देती है। पुतिन कई अलगाववादी अथवा धार्मिक ताकतों, अशांति और आतंकवाद से जूझ चुके हैं। उन्होंने क्रीमिया पर कब्जा कर यूक्रेन को सबक सिखाया, अमेरिका के सामने खड़े हुए और ट्रंप के समय अपना खेल भी खेला। उनके कार्यकाल में रूस दोबारा एक बड़ी शक्ति बना है। ऐसे में क्या फर्क पड़ता है अगर उसकी अर्थव्यवस्था अन्य देशों के मुकाबले कमजोर हुई है? यहां तक कि उभरते बाजारों से भी पिछड़ गई है। 2019 में रूस की अर्थव्यवस्था का आकार भारत की 1.7 लाख करोड़ डॉलर का 60 फीसदी रह गई। परंतु एक एकजुट राष्ट्र अपने पड़ोस और वैश्विक शक्ति संतुलन पर अपनी आर्थिक शक्ति से अधिक वजन डाल सकता है। उसे स्थिरता और नेतृत्व यह शक्ति प्रदान करते हैं। इसी बात को भारत पर लागू कीजिए। सन 2014 में भारत के 26/11 के जख्म ताजे थे। इस घटना से पहले और बाद की आतंकी घटनाएं भी भूली नहीं थीं। यह शर्मिंदगी से भरे दो दशकों की याद थी जहां एक कमजोर पड़ोसी मुल्क हमें अक्सर नुकसान पहुंचाता था। वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक भारत बस अमेरिका तथा अन्य देशों से शिकायत ही करता। तत्कालीन प्रधानमंत्री को उसके ही दल ने इतना कमजोर बना दिया था कि वह अपने गरिमामय पद की छाया भर रह गया था। सार्वजनिक बहस विपक्ष के भ्रष्टाचार के आरोपों और सत्ताधारी दल के विषमता के आरोपों तक सीमित थी। सन 2003 से 2009 के बीच भारत की अर्थव्यवस्था तरक्की पर थी और इस दौरान काफी गौरवबोध और आशावाद पनपा। इसके दम पर संप्रग सरकार दोबारा सत्ता में आई। बाद के वर्षों में हालात एकदम विपरीत हो गए। यह अनूठा चुनाव प्रचार था जहां तत्कालीन सरकार अपनी आर्थिक सफलताओं के बजाय असमानता और गरीबी का जिक्र कर प्रचार कर रही थी।
मोदी के मामले में गुजरात मॉडल को देशव्यापी बनाने के वादे ने काम किया। सत्ता पक्ष की नकारात्मकता ने और मदद पहुंचाई। हालांकि बीते सात वर्षों में वह आर्थिक विकास के मोर्चे पर नाकाम रहे। परंतु राष्ट्रीय गौरव यानी आतंकवाद और पड़ोसी मुल्क के समक्ष खड़े होने प्रधानमंत्री कार्यालय की गरिमा बहाल करने आदि के मामले में उन्हें कामयाबी मिली। याद रहे हम केवल उनके मतदाताओं की बात कर रहे हैं।
एक के बाद एक जिस तरह ताबड़तोड़ अंदाज में आर्थिक सुधार पेश किए गए उससे अंदाजा लगता है कि मोदी समझ गए हैं कि उनकी पटकथा कमजोर है। वह आर्थिक सुधार का प्रयास करेंगे लेकिन अब तक के सफल हथियारों को भी नहीं त्यागेंगे। यानी गरीबों के लिए कल्याण योजनाएं, नजर आने वाला अधोसंरचना विकास और हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद। अर्थव्यवस्था का इंजन लंबे समय तक बंद रहे तो उसे गति पकडऩे में समय लगता है। संभव है कि एक बेहद बुरे वर्ष के बाद शायद हमें एक अच्छा साल मिले। शेयर बाजार में कुछ हलचल हो सकती है लेकिन व्यापक आर्थिक लाभ हासिल करने में वक्त लगेगा। मोदी इस बात को समझते हैं। सवाल यह है कि क्या उन्हें चुनौती देने वाले भी इसे समझते हैं? अभी भी वे मोदी पर ज्यादातर हमले आर्थिक मुद्दों पर करते हैं। पहचान (धार्मिक और सांस्कृतिक) तथा राष्ट्र गौरव का क्षेत्र उन्होंने मोदी के लिए छोड़ दिया है। सबरीमला मसले पर कांग्रेस और वाम दलों की ऊहापोह से इसे समझ सकते हैं। या उड़ी, बालाकोट या गलवान पर सवाल उठाने से। इससे पता चलता है कि राष्ट्रवाद पर उनकी समझ कमजोर है। आर्थिक निराशा से असुरक्षा आती है लेकिन पहचान या राष्ट्रीय गौरव को संभावित खतरे के समक्ष यह कुछ भी नहीं। यही कारण है कि लोकतांत्रिक देशों में भावनाओं को उभारने वाले नेता जीत रहे हैं। कह सकते हैं कि मसला केवल अर्थव्यवस्था का नहीं है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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