तरुण विजय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हरिद्वार कुंभ में लोगों को प्रतीकात्मक रूप से न आने का जो परामर्श दिया, वही बात यदि आज विनायक दामोदर सावरकर होते, तो कहते। वही बात स्वामी अवधेशानंद गिरी ने मानी। तो यह नवीन हिंदू का द्योतक कुंभ बन गया। यह बात कुछ सोचने पर भी विवश करती है। हिंदुओं पर विभिन्न दिशाओं से इतने आघात हो रहे हैं कि उन्हें रक्षात्मक होने के लिए, स्वरक्षा के लिए हिंदू सामूहिक एकता और दृढ़ता का प्रकटीकरण करना आवश्यक लगता है। अनेक आघात सहते हुए भी हिंदू अपराधी के कठघरे में पूर्वाग्रहीत मीडिया द्वारा खड़ा कर दिया जाता है।
जिन हिंदुओं का शताब्दियों तक अफगनिस्तान पर हिंदू शाही साम्राज्य रहा, वह आज अपने ही घर में हिंदुकुश का उन्माद देखता है, तो पूछता है कि हमने तो विभाजन नहीं मांगा था, फिर हम पर ही अभी तक क्यों हमले हो रहे हैं? यह पहली बार नहीं हो रहा है कि हिंदुओं का एक वर्ग हिंदू विरोध में इस्लामी और ईसाई धर्मांतरणवादी शक्तियों के साथ अपने स्वधर्मी हिंदुओं पर आक्रमणों को उचित बता रहा है। उसमें इतना भी पूछने का साहस नहीं कि ईसाई, जिहादी के साथ कम्युनिस्ट भी तीसरी विचारधारा के रूप में क्यों केवल हिंदुओं को निशाना बना रहे हैं।
गत छह सौ वर्षों से विविध विदेशी हमलों के शिकार हिंदू आज यह प्रश्न पूछते हुए भी असहज हो जाते हैं। यह परिस्थिति एकजुटता के साथ स्वधर्मी विवेकी परिष्कार की मांग करती है। गत शताब्दियों में यदि लाल-बाल-पाल, आर्य समाज, विवेकानंद प्रणीत रामकृष्ण मिशन न होते, तो आज जो थोड़ा बहुत हिंदू दिख रहा है, वह संभव न होता। हम सनातनी हैं, इसीलिए हम धर्म की विजय के प्रति आश्वस्त हैं और निहायत क्रूर आक्रामकों के दौर के बाद भी रामायण युग की परंपराओं, पूजा पद्धतियों को आज भी घर-घर में जी रहे हैं। यह इसलिए कि हम जड़ और परिवर्तन के प्रति नकारात्मक भाव रखने वाले नहीं थे, नहीं हैं। इसीलिए बेहतर है कि नवीन हिंदू पीढ़ी की रक्षात्मक-आक्रामक-बौद्धिक शक्ति बढ़ाएं।
यह मान लेना कि कुंभ है, तो जीवन-मरण की चिंता किए बिना वहां जाना ही है, हिंदू आग्रहों की समकालीन दिशा को भ्रमित करता है। कुंभ को समय पर ही सूक्ष्म कर संपूर्ण करने का आग्रह समकालीन होने का द्योतक होता। अगर आज सावरकर होते, तो क्या हिंदुओं की इस कूपमंडूक दृष्टि पर प्रहार किए बिना रहते? हिंदू आग्रह है सामाजिक समरसता, बौद्धिक आक्रमणों और इतिहास के प्रति सही दृष्टिबोध स्थापित करना, जिसके बिना हिंदू समाज टूट रहा है। पर माहौल कुछ ऐसा है कि हिंदू होने का अर्थ सिर्फ कर्मकांड में विश्वास का पर्याय बन गया है। विवेकानंद और सावरकर ने केवल हिंदू होने में गर्व की ही बात नहीं की थी, बल्कि हिंदुओं के अंधविश्वासों, रूढ़ियों, कर्मकांडीपन के तर्कहीन पथानुगमन का धिक्कार की भाषा में विरोध किया था।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने मूर्तिभंजक रूप लिया, वहीं बूढ़ी गायों को कसाई के यहां भेजने और पतित पावनी मंदिर बनाने का कदम सावरकर ने उठाया, तो विवेकानंद ने केरल में उच्च जातियों के निर्मम, जाति-भेदमय आचरण को देखकर कहा, यह तो पागलों का प्रदेश है। आज ऐसा कुछ कह कर देख लीजिए। बौद्धिक और शारीरिक हमलों का सम्यक प्रत्युत्तर, अपनी अस्मिता के प्रति विश्वव्यापी हिंदू जागरण, आग्रही हिंदू का नवजागरण, नवरात्रों और शक्ति पूजा, दिवाली और होली के समय अपनी धुरी पर कायम रहने की दृष्टि राष्ट्रीयता का बोध था। हिंदू आग्रह का एक चरम हमें श्रीराम जन्मभूमि पुनर्निर्माण रूप में दिखा, जो अभी बहुत से हिंदुओं के लिए अविश्वसनीय है, स्वप्नवत है।
चिरंतन के साथ परिवर्तनशील हिंदू का पुनरोदय वास्तविक वैचारिक कुंभ का परिचायक होगा। डॉ हेडगेवार ने अपने समय में सौ वर्ष आगे जाकर नवीन पद्धति के आविष्कार के साथ जो परिष्कार गामी हिंदू तैयार किए, उसी ने नवीन भारत की विचारधारा गढ़ी। मुझे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नवीन सरकार्यवाह दत्ता जी होसबले में वह सावरकर सम्मत अग्नि का परिचय मिलता है। चार वर्ष बाद संघ जब शताब्दी मनाएगा, तब उस नवीन, चैतन्य, समयानुकूल शक्ति और परिवर्तनशील हिंदू का उदय निश्चय ही नूतन भारत का परिचय होगा।
सौजन्य - अमर उजाला।
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