केंद्र सरकार ने टीका उत्पादन बढ़ाने के लिए सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक को साढ़े चार हजार करोड़ रुपए देने की बात कही है। इसके अलावा विदेशी टीकों के आयात पर सीमा शुल्क में दस फीसद छूट का संकेत भी दिया है। ये दोनों कदम टीकों की कमी दूर करने के लिहाज से महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश में टीकों की भारी कमी है और इससे टीकाकरण प्रभावित हो रहा है। पिछले हफ्ते के आंकड़े इस बात की पुष्टि भी करते हैं।
ग्यारह से सत्रह अप्रैल के बीच सिर्फ एक करोड़ नब्बे लाख आठ हजार अस्सी टीके लग पाए, जबकि चार से दस अप्रैल के बीच दो करोड़ बाईस लाख पचहत्तर हजार आठ सौ इकतीस टीके लगे थे। यानी एक हफ्ते में प्रतिदिन के औसत से देखें तो चार लाख छियासठ हजार टीके कम लगे। जाहिर है, अगर टीकाकरण की रफ्तार सुस्त पड़ने लगेगी तो इसका असर कोरोना के खिलाफ जंग पर पड़ेगा।
अब एक मई से अठारह वर्ष से ऊपर वालों को भी टीका लगने का एलान हो गया है। इसके लिए सरकार पर दबाव भी पड़ रहा था। ऐसे में टीका निर्माता कंपनियों के सामने जल्द से जल्द पर्याप्त टीके तैयार करने की चुनौती है। भारत जैसे विशाल देश में आबादी के बड़े हिस्से का टीकाकरण और वह भी दो-दो खुराकों के साथ करना आसान काम नहीं है। इसके लिए टीका बनाने से लेकर उसकी सुरक्षित आपूर्ति सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है।
टीकों का उत्पादन बढ़ाने के लिए सीरम इंस्टीट्यूट ने सरकार से तीन हजार करोड़ रुपए की मदद मांगी थी। अब तीन हजार करोड़ रुपए सीरम को और डेढ़ हजार करोड़ रुपए भारत बायोटैक को मिलेंगे। टीकाकरण केंद्रों और अस्पतालों तक टीकों की जल्दी आपूर्ति के लिए निजी अस्पतालों और कारपोरेट समूहों को सीधे कंपनियों से टीके खरीदने की छूट भी दे दी गई है। सरकार ने विदेशी टीकों को लेकर भी सकारात्मक रुख दिखाया है और आने वाले दिनों में कुछ टीकों को मंजूरी मिलने के संकेत भी हैं। इस कवायद का मकसद यही है कि जितना जल्द हो सके, ज्यादा से ज्यादा लोगों को टीके लग जाएं।
देश में टीकाकरण इस साल सोलह जनवरी को शुरू हुआ था। तब से अब तक सिर्फ बारह करोड़ लोगों को ही टीके लग पाए हैं। कहने को दुनिया में सबसे तेज टीकाकरण वाले देशों में भारत पहले नंबर पर है। लेकिन हकीकत यह भी है कि अभी तक हम कुल आबादी के आठ फीसद हिस्से का ही टीकाकरण कर पाए हैं। जबकि भूटान जैसे देश में यह प्रतिशत साठ को पार कर गया है। अमेरिका में यह प्रतिशत सत्तावन और ब्रिटेन में साठ है।
हालांकि इसके पीछे यह तर्क दिया जा सकता है कि हमारी आबादी इन देशों के मुकाबले कई गुना है। लेकिन इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि टीकाकरण अभियान में खामियों ने इसकी रफ्तार धीमी की है। लाखों खुराक तो सिर्फ आपूर्ति और रखरखाव के कुप्रबंधन के कारण ही बर्बाद हो गर्इं। वरना आज क्यों कई राज्य टीके की कमी का रोना रो रहे होते! मुश्किल यह है कि हम हर मामले में देर से जागते हैं।
देश की टीका बनाने वाली कंपनियों को जो मदद और रियायतें अब दी जा रही हैं, यह कदम पहले क्यों नहीं उठाया जा सकता था? विशेषज्ञ कह रहे हैं कि देश के स्तर पर प्रतिरोधी क्षमता हासिल करने के लिए पचहत्तर फीसद आबादी का टीकाकरण जरूरी है। अगर टीकाकरण की मौजूदा रफ्तार यही रही तो यह काम दो-तीन महीने में हो पाना असंभव ही है। अभी औसतन बत्तीस लाख टीके रोज लग रहे हैं। इसे हम जितना जल्दी और ज्यादा बढ़ा पाएंगे, उतना ही अगली लहर के जोखिम से बच सकेंगे।
सौजन्य - जनसत्ता।
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