लाचारी की वापसी (जनसत्ता)

राजधानी दिल्ली में कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के मद्देनजर इससे निपटने के लिए जरूरी उपाय वक्त का तकाजा हैं। लेकिन इसके साथ ही यह बात जुड़ी हुई है कि अगर बचाव के लिए लागू पूर्णबंदी की वजह से दूसरी तकलीफदेह स्थितियां पैदा होती हैं तो इसकी जिम्मेदारी किस पर आती है? दिल्ली में पिछले हफ्ते संक्रमण की रफ्तार पर काबू पाने के लिए रात्रिकालीन कर्फ्यू के बाद सप्ताहांत की बंदी और फिर आने वाले सोमवार तक के लिए पूर्णबंदी लागू कर कर दी गई।

जाहिर है, समूची दिल्ली में सब कुछ बंद हो जाने का सीधा असर रोजी-रोजगार पैदा करने वाले उन सभी क्षेत्रों पर पड़ा, जिनके सहारे यहां लाखों मजदूर अपने घरों से सैकड़ों किलोमीटर दूर आकर गुजारा करते हैं, महज जीवन चलाने भर का इंतजाम करते हैं। ऐसे तमाम लोग हैं, जिनके घर का चूल्हा उनकी रोजाना की दिहाड़ी की वजह से जलता है।

सारे कामकाज बंद हो जाने की स्थिति में ऐसे लोगों के सामने दिल्ली में टिकने का क्या उपाय बचता है? स्वाभाविक ही दिल्ली में पूर्णबंदी लागू होने के साथ ही हजारों लोग एक बार फिर अपने गांवों की ओर लौट चले। दिल्ली के आनंद विहार और दूसरे बस अड्डों पर लोगों की भारी भीड़ जमा हो गई। बसों को पकड़ने के लिए जैसे हालात पैदा हो गए, उससे केवल संक्रमण के विस्तार का जोखिम पैदा नहीं होता, बल्कि बच्चों और महिलाओं के साथ बसों में किसी तरह सवार लोगों की हालत एक तकलीफदेह त्रासदी की तस्वीर है, साथ ही सरकारी संवेदनहीनता और अदूरदर्शिता का सबूत भी।


महामारी की बिगड़ती स्थिति के मद्देनजर कर्फ्यू लागू करने को बचाव के कदमों के तौर पर देखा जाना चाहिए। लेकिन क्या दिल्ली सरकार को इस बात का अंदाजा नहीं था कि राजधानी की अर्थव्यवस्था के गतिशील रहने के लिए काम करने वाले ढांचे के अचानक थम जाने का असर क्या होगा! मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यह जरूर कहा कि यह बंदी छोटी अवधि की है।

लेकिन बिना किसी पूर्व सूचना के कर्फ्यू या बंदी लागू करने के बदलते फैसलों को देखते हुए पलायन करने वाले लोग कैसे मुख्यमंत्री की बात पर भरोसा कर लेते। दिल्ली में संक्रमण की जो स्थिति अभी दिख रही है, उसे देखते हुए हालात पर जल्दी नियंत्रण या इससे मुक्ति का भरोसा शायद ही किसी को आश्वस्त करे। ऐसे में अगर संक्रमण की रफ्तार काबू में नहीं आई और बंदी लंबी खिंची तो दिहाड़ी पर निर्भर लोग कितने दिन और कैसे टिक सकेंगे! रोजगार चले जाने से आमदनी बंद हो जाती है, लेकिन खाने-पीने या कमरे का किराया कोई नहीं छोड़ता।

यह किसी से छिपा नहीं है कि सरकारों की ओर से तात्कालिक राहत की घोषणाएं की जाती हैं, लेकिन व्यवहार में वे कितनी टिकाऊ और मददगार साबित हो पाती हैं। रैन बसेरों और खाना मुहैया कराने का महत्त्व महज सांकेतिक और औपचारिक होकर रह जाता है। यों दिल्ली के मुख्यमंत्री ने कुछ समय पहले कहा था कि पूर्णबंदी की नौबत आती है तो वे इसे लागू करने से पहले दिल्ली के लोगों से सुझाव मांगेंगे।

लेकिन अचानक हुई घोषणा और बंदी के दिनों में बढ़ोतरी ऐसी बातों के वजन को दर्शाती है। अब एक बार फिर कामकाज और रोजी-रोटी के अभाव में लोगों ने मजबूरी में पलायन शुरू कर दिया है तो सरकार को अपनी नीतियों और व्यवस्था पर गौर करना चाहिए। ऐसी दुखद स्थिति तब भी सामने आई, जब पिछले साल की ठीक ऐसी त्रासदी का उदाहरण सबके सामने था, लेकिन सरकार ने उससे सबक लेना जरूरी नहीं समझा। महामारी की गंभीरता सबको समझ में आती है, लेकिन व्यवस्थागत कमियों और खामियों की वजह से पैदा होने वाली त्रासदी के लिए सीधे सरकार जिम्मेदार होती है।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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