विमल बालासुब्रमण्यम
भारत सरकार लोकसभा के साथ राज्य विधानसभाओं के चुनाव भी एक साथ कराने की बात कर रही है। 'एक देश-एक चुनाव' की नीति का समर्थन नीति आयोग और विधि आयोग जैसी संस्थाओं ने भी किया है और मीडिया में भी इस पर बहुत चर्चा हुई है। इस प्रस्ताव के पीछे तर्क यह है कि चुनाव कराना बहुत खर्चीला है, तथा लगातार चुनाव कराए जाने से प्रशासनिक कामकाज में बाधा पहुंचती है, क्योंकि नौकरशाही चुनावी प्रबंधन में व्यस्त रहती है।
दूसरी ओर, कुछ विश्लेषकों का कहना है कि एक साथ चुनाव कराए जाने से संघीय ढांचा बेअसर हो सकता है, क्योंकि लोकसभा का चुनाव विधानसभा चुनावों को महत्वहीन कर सकता है। इस संबंध में हमारे अध्ययन के दौरान एक और मूलभूत सवाल सामने आया। वह यह कि एक साथ कराए गए चुनाव क्या मतदाताओं के व्यवहार को प्रभावित करते हैं? अगर इसका जवाब हां में है, तो क्या इसका चुनावी नतीजे पर भी असर पड़ता है? हमारा तर्क यह है कि मतदाता जब एक साथ कराए गए चुनावों में वोट डालता है, तब उसके सामने यह चुनौती रहती है कि वह बारी-बारी से होने वाले मतदान में किसे वोट दे। और आखिरकार यह मतदाताओं द्वारा वोट डालने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। यानी ऐसी स्थिति में एक मतदाता निर्णय लेने की प्रक्रिया को बेहद सामान्य बना डालता है और किसी खास पार्टी को या फिर जातिगत या धार्मिक पहचान या संकीर्ण नीतियों के आधार पर वोट डालता है।
एक साथ कराए गए चुनावों में मतदाताओं के वोट डालने की प्रक्रिया अगर व्यापक स्तर पर प्रभावित होती है, तो यह चुनावी नतीजे को प्रभावित कर सकती है। हमने वर्ष 1977 से 2018 तक के लोकसभा और विधानसभा चुनावों का विश्लेषण किया है, और इस दौरान चुनावी चक्र में आने वाले स्वाभाविक फर्क का भी आकलन किया है, ताकि एक साथ कराए जाने वाले चुनावों के प्रभाव को समझा जा सके। हमने लोकसभा और विधानसभा चुनावों की तारीखों के बीच 180 दिन का अंतराल रखते हुए मतदान की प्रवृत्ति की तुलना की है। एक साथ कराए जाने वाले चुनावों से आसन्न चुनावों की तुलना करते हुए हमने प्रत्याशियों के चयन और राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव अभियान की रणनीति को हटा दिया है, जो भले ही मतदाताओं के व्यवहार को प्रभावित करते हैं, पर एक साथ और अलग-अलग कराए जाने वाले चुनावों में जिनका असर समान रहता है। हालांकि 180 दिन का अंतराल अनिवार्य नहीं है, अंतराल इससे कम या ज्यादा हो, तब भी चुनावी नतीजे पर फर्क नहीं पड़ता।
मतदाताओं के व्यवहारों का विश्लेषण करने के लिए हमने 1996 से 2018 तक लोकनीति और सीएसडीएस द्वारा लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव के बाद किए गए सर्वेक्षणों का और चुनावी नतीजे के लिए चुनाव आयोग के विस्तृत चुनावी नतीजों की मदद ली है। चुनावों के बाद किए गए सर्वेक्षणों के सहारे हमने यह साबित किया है कि एक साथ कराए जाने वाले चुनावों में मतदाताओं पर भारी मानसिक दबाव होता है। अलग-अलग होने वाले चुनावों के विपरीत एक साथ कराए जाने वाले चुनावों में मतदाताओं से मुख्य चुनावी मुद्दे के बारे में पूछने पर अधिक संख्या में मतदाता कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम। दो अलग तरह के चुनावों का एक साथ चल रहा अभियान भी मुख्य चुनावी मुद्दे के मामले में मतदाताओं के भ्रम का एक कारण हो सकता है। हमारा अनुमान था कि यह भ्रम उन मतदाताओं में है, जिन्हें चुनाव का अनुभव नहीं है। लेकिन हमने पाया कि यह भ्रम विभिन्न शैक्षिक योग्यताओं वाले और विभिन्न आयु वर्गों में कमोबेश समान है।
एक साथ कराए जाने वाले चुनावों में बिल्कुल शुरुआत से ही एक पार्टी का उभार पाया जाता है। ऐसे में, हमारा अनुमान यह है कि एक साथ कराए जाने वाले चुनावों में लोकसभा और विधानसभा चुनावों का नतीजा एक ही होता है, उसमें अंतर नहीं आता। हमने पाया है कि एक साथ होने वाले चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियों के बजाय प्रांतीय और क्षेत्रीय पार्टियां ज्यादा असरदार साबित होती हैं। हमने यह भी पाया है कि ऐसे चुनावों में राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियों को ज्यादा लाभ होता है। इससे पता चलता है कि राज्य के मुद्दे ही ज्यादा प्रभावी होते हैं। हमने गंभीरता से विचार-विमर्श करने के बाद इस संभावना को खारिज कर दिया कि एक साथ होने वाले चुनावों में वोट देने वालों की संख्या और मतदान की प्रवृत्ति में व्यापक परिवर्तन आता है, और जो चुनावी नतीजे में बदलाव लाता है।
हमने यह पाया है कि एक साथ होने वाले चुनावों में विधानसभा के लिए होने वाले मतदान में वृद्धि नहीं होती, लेकिन लोकसभा के लिए मतदान में करीब पांच फीसदी की बढ़ोतरी होती है। लेकिन कुल मिलाकर हम मतदान की प्रवृत्ति में कोई खास परिवर्तन नहीं देखते, वह हर आयु वर्ग में और हर चुनावी क्षेत्र में कमोबेश एक समान ही होता है। इसके अतिरिक्त चुनावी नतीजे में आने वाले बदलाव भी मतदान में वृद्धि का नतीजा नहीं होता। भारत सरकार 'एक देश-एक चुनाव' की जो बात कर रही है, हमारे अध्ययन का निष्कर्ष उसमें सहायक साबित हो सकता है। यह बदलाव सिर्फ खर्च बचाने वाला एक प्रशासनिक परिवर्तन नहीं होगा, बल्कि यह मतदाताओं के वोट देने की निर्णय प्रक्रिया को भी बदल देगा। लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग-अलग कराए जाने से, जिसके तहत मतदाता अलग-अलग समय लोकसभा और विधानसभा के प्रत्याशियों को चुनते हैं, भारत में संघीय ढांचा काम कर रहा है। लेकिन एक साथ होने वाले चुनावों में वोट डालते हुए वे दोनों चुनावों में एक जैसा फैसला लेंगे। लिहाजा एक साथ चुनाव संघीय ढांचे को चोट पहुंचाता है, नीचे तक होने वाले लाभों को कम करता है और विकेंद्रीकरण को उतना प्रभावी नहीं रहने देता।
-साथ में अपूर्व यश भाटिया और सव्यसाची दास।
विमल बालासुब्रमण्यम लंदन के क्वीन मेरी यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के सहायक प्राध्यापक, सव्यसाची दास अशोका यूनिवर्सिटी, सोनीपत में अर्थशास्त्र के सहायक प्राध्यापक और अपूर्व यश भाटिया वारविक यूनिवर्सिटी, ब्रिटेन में अर्थशास्त्र के पीएच.डी. के छात्र हैं।
सौजन्य - अमर उजाला।
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