अनिल प्रकाश जोशी
कोरोना की दूसर लहर पिछली लहर से ज्यादा घातक साबित हो रही है। ऐसा इसलिए नहीं कि नया स्ट्रेन ज्यादा घातक है, बल्कि इसलिए कि हमने ही सारे तरह के नियम, परहेज और सतर्कता को दरकिनार कर दिया था। हमें इस महामारी के आर्थिक, मानसिक और शारीरिक पहलुओं को नजरंदाज नहीं करना चाहए था, और यह भी गंभीरता से समझना चाहिए था कि हमारे पास सिर्फ संसाधन ही सीमित नहीं, बल्कि रास्ते भी सीमित हैं। हमारी समझ की इसी भूल ने इसे महामारी बनाया है। देश की अर्थव्यवस्था पिछले एक साल से डगमगाई हुई है। पिछले साल लगाए गए लॉकडाउन जैसे कड़े कदम की उस समय बड़ी आवयकता इसलिए भी थी, क्योंकि तब किसी भी देश के पास कोई अनुभव नहीं था। अफरा-तफरी में सब कुछ किया गया था, क्योंकि माल से ज्यादा जान की चिंता थी। चूंकि आय के सारे साधन चुनौती बन चुके थे, ऐसे में, कई तरह की आर्थिक सहायताओं के कदम भी उठाने जरूरी थे। इस कारण सरकार का अर्थतंत्र डगमगा गया था। यही कारण है कि इस बार लॉकडाउन को प्राथमिकता में नहीं रखा गया, जो एक तरह से सही भी है, क्योंकि किसी भी देश की आर्थिकी हर मोर्चे पर लड़ने के लिए उसे सबल करती है। पहली लहर के समय दुनिया की तुलना में हम बेहतर साबित हुए थे। उस समय की सफलता के लिए मात्र सरकार को ही श्रेय नहीं गया था, बल्कि प्रधानमंत्री व देश ने समाज के हर वर्ग का आभार प्रकट किया था।
अब की बार जिस तरह इसकी व्यापक मार पड़ी है, उसके लिए सारा दोष तंत्र पर थोप देना हमारे दायित्व से कतराने का भी काम करता है। हम यह नहीं समझ पा रहे कि सरकार कोई अलग-थलग चीज नहीं है। न ही उसके पास जादू की छड़ी है, जिसे एक बार घुमा देने भर से कोरोना का अंत हो जायेगा। न तो ऐसी कोई छड़ी होती है, और होती, भी तो हमारे वर्तमान व्यवहार से वह भी मुंह मोड़ लेती और किसी भी काम की नहीं होती। हम शुरुआत से ही अगर एक बात समझ लेते कि कोरोना जैसी महामारी सही प्रबंधन के अभाव में ही ज्यादा पनपती है और यह कोई सरकारी प्रबंधन नहीं होता, बल्कि हर व्यक्ति व परिवार का अपना प्रबंधन होना चाहिए था, जिसे इस बार हमने जोर से नकारा। हम अति आत्मविश्वासी हो गए और सारे नियमों को दरकिनार कर गए। यह समझना चाहिए कि जब महामारी कहर का रूप ले लेती हैं, तो व्यवस्थाएं चाहे वह सरकारी हो या गैरसरकारी, सभी चरमरा जाती हैं।
और ऐसा ही हो रहा है। हमारे व्यक्तिगत व पारवारिक प्रबंधन लगभग शून्य हो चुके थे। हमने खुद को व परिवार को अनावयक रूप से सुरक्षित मान लिया था। भीड़ से हमारा भय खत्म हो चुका था। हमारे हर तरह के परहेज ही हमें इस महामारी की चपेट में आने से बचा सकते थे। अगर हम पहले ही चरण में पूरी तरह विफल हो गए हैं, तो फिर व्यवथा पर कैसे उंगली उठा सकते हैं? पहली लहर से हमें समझ जाना चाहिए था कि हम दो गज की दूर व मास्क जैसे कदम से बच सकते हैं। पर हमने कुछ नहीं सीखा। हमारी नासमझी ने आज देश को बड़े संकट में डाल दिया है।
ऑक्सीजन और जरूरी दवाएं अगर आज बाजार से गायब हो रही हैं, तो कारण भी हम खुद हैं। अपने हित में हमने जमाखोरी व कालाबाजारी को जन्म दिया। सरकार की इस ओर की गई कोशिशें भी तब तक असरदार नहीं होंगी, जब तक हम सरकार के तंत्र को नहीं मानेंगे। असल में कोरोना जैसी महामारी व्यवस्थाओं से ज्यादा प्रबंधन से संबंधित होती हैं, बेहतर प्रबंधन जो हर व्यक्ति व परिवार के परहेज से जुड़ा हुआ है। कुप्रबंधन महामारी को बढ़ावा ही देगा और कोई भी व्यवस्था इस तरह के ज्यादा बोझ को नहीं झेल पाएगी। यह सरकार की सीमाओं और वर्तमान व्यवस्थाओं को समझने का समय है। सरकार किसी पार्टी की नहीं होती, वह सबकी होती है, जो हम सबके लिए है। और अंततः हमारा भला तभी संभव है, जब सरकारी तंत्र को मजबूती देने में हम आगे बढ़ें।
यह समय आलोचना करने और तंज कसने का नहीं, बल्कि इस महामारी के खिलाफ सामूहिक रूप से कमर कसने का है। इस समय अपने अधिकार के लिए ज्यादा परेशान न हों, बल्कि यह सोचें कि हम चरमराती व्यवस्था को कैसे सुधारें। अब देखिए, जब वैक्सीन आई, हमने उस पर सवाल खड़े किए। जिस दिन 50 प्रतिशत लोगों का टीकाकरण हो जाएगा, महामारी 90 प्रतिशत गायब हो जाएगी। हमें इस समय सरकार को किसी भी दल से जोड़कर अपनी विवेचना नहीं देनी चाहिए। कोरोना ने किसी दल विशेष को अपने कहर से मुक्त नहीं किया। जब शेर गांव में आता हो, तब गांव एकजुट होकर ही उसे भगा पाएगा। हमें इस समय किसी वाद-विवाद का हिस्सा नहीं बनना चाहिए। हम परहेज से चलेंगे, तो कम ही लोग इसकी चपेट में आएंगे और सीमित मेडिकल व्यवस्था का भी पूरा लाभ उठा पाएंगे। हमें किसी को दोष देने से आज बचना है और देश को कोरोना के दोष से मुक्त करने के लिए जुटना है। हम एकजुट होकर ही यह लड़ाई जीत सकते हैं। हमारा जीवन आज संकट में है। जान बचानी है, तो नए सिरे से एकजुट होकर सरकार के प्रयत्नों को छोटा न करें, क्योंकि इसी से हमारी जान बच सकती है। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि कई राज्य सरकारें हताश और असहाय हो चुकी हैं। ऐसे में हमारा कर्तव्य है कि हम सरकार के साथ जुटें और इस महामारी को पछाड़ें।
सौजन्य - अमर उजाला।
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