अफगानिस्तान: शांति की राह में रोड़े कम नहीं (अमर उजाला)

कुलदीप तलवार  

अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन पद संभालने के बाद से अफगानिस्तान में शांति बहाली के लिए भरपूर कोशिशें कर रहे हैं। बाइडन ओबामा के दौर में उप राष्ट्रपति थे, उनका मानना रहा है कि अमेरिका व नाटो सैनिकों को अफगानिस्तान से निकल जाना चाहिए। वह अब भी अपने इरादे पर कायम है। लेकिन अफगानिस्तान के मौजूदा हालात को देखते हुए और अमेरिकी हितों को नजर में रखकर पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने तालिबान के साथ पहली मई तक सैनिकों को निकालने का समझौता कर लिया था, उस पर वह अमल को तैयार नहीं है। ट्रंप अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को निकालने की जल्दबाजी में थे। 



लेकिन बाइडन काफी सतर्क हैं, फूंक-फंककर कदम बढ़ा रहे हैं। उन्हें अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने पहले ही आगाह कर दिया था कि अफगानिस्तान में सत्ता के बंटवारे से समझौते से पहले अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान से बाहर निकाला गया, तो तालिबान सारे देश पर कब्जा कर लेंगे। बाइडन दूसरे देशों को साथ, जो अफगानिस्तान में शांति चाहते हैं, लेकर चल रहे हैं। वह नाटो को मजबूत करना चाह रहे हैं। जबकि ट्रंप नाटो गठबंधन में तनाव का शिकार रहे। ऐसा लगता है कि बाइडन पाकिस्तान को अपना सहयोगी नहीं समझते। इसलिए उन्होंने रक्षामंत्री आस्टिन को पिछले दिनों पाकिस्तान नहीं भेजा, जबकि उन्हें भारत और अफगानिस्तान भेजा गया। ताकि अफगानिस्तान में हिंसा के खात्मे और शांति बहाली के लिए गहन विमर्श किया जाए और हालात को सुधारने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं। इससे पता चलता है कि पाकिस्तान उसके लिए सामरिक महत्व का देश नहीं रह गया। ट्रंप उससे धोखा खाते रहे और पाकिस्तान को तालिबान से समझौता कराने में मददगार समझते रहे। 



गरज ये कि बाइडन का काम करने का रवैया ट्रंप से बिल्कुल अलग है। वह अफगानिस्तान में हिंसा को खत्म करने व शांति बहाली के लिए वहां से अमेरिकी सैनिकों को अभी निकाल नहीं रहे। निस्संदेह गरीब अफगानियों के लिए यह एक राहत की बात है। तस्वीर का दूसरा रुख यह है कि अफगानिस्तान में शांति बहाली के रास्ते में सभी पक्षों-तालिबान, अफगान सरकार व शांति चाहने वाले देशों में गंभीर मतभेद हैं। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी कह रहे हैं कि वह शांति बहाली के लिए देश में नए चुनाव कराने को तैयार हैं, पर मिली-जुली सरकार के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं। उनका मानना है कि देश में तब्दीली केवल लोकतांत्रिक तरीके से हो सकती है। 


ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में बेशक अफगानिस्तान और उससे जुड़ी चिंताओं को रेखांकित किया गया, पर जो देश इस सम्मेलन में शामिल थे अधिकांश का मानना था कि अगर भारत अफगानिस्तान में बड़ा रोल अदा करना चाहता है, तो उसे ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी भी संभालनी होगी। यानी भारत को अफगानिस्तान में सेना की तैनाती भी करनी होगी। जबकि अबतक भारत की सरकारें इसे नकारती रही हैं। भारत का मानना है कि अफगानिस्तान में पहले हिंसा खत्म होनी चाहिए और वहां पाकिस्तान की भूमिका सीमित करके ही शांति कायम हो सकती है। दरअसल बाइडन प्रशासन भी इस बात को अच्छी तरह समझ गया है। पर्दे के पीछे पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई तालिबान को ताकत दे रही है। एक तरह से तालिबान आईएसआई के लिए अफगान सरकार के खिलाफ भाड़े पर युद्ध कर रहा है। इधर रूस व अमेरिकी संबंधों में दिन-ब-दिन कशीदगी बढ़ती जा रही है। अगले कुछ समय में रूस अमेरिका को अफगानिस्तान से निकालने का फैसला ले सकता है। 


तालिबान पहले ही बाइडन को धमकी दे चुके कि वह अमेरिकी सेना को जल्दी ही वहां से निकाल लें, वरना वे हमले तेज कर देंगे। अफगानिस्तान में रूस भारत को उपयोगी नहीं मानता, जबकि भारत का वहां बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। उसकी नजरों में भारत और अमेरिका की घनिष्ठता भी खटक रही है। वर्ष 2019 की तुलना में 2020 में नागरिकों की मौत के बारे में ही 45 फीसदी की वृद्धि है। इस साल भी हालत बेहतर नहीं हुई। यही कहा जा सकता है कि अफगानिस्तान में अभी शांति बहाली मुश्किल नजर आ रही है। 

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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