आपदा में धर्म (दैनिक ट्रिब्यून)

प्रधानमंत्री द्वारा हरिद्वार कुंभ को प्रतीकात्मक बनाने की अपील पर साधु-संतों का सकारात्मक प्रतिसाद स्वागतयोग्य है। इसके बाद नागा संन्यासियों के सबसे बड़े पंचदशनाम जूना अखाड़ा ने शनिवार को कुंभ विसर्जन की घोषणा कर दी। साथ ही जूना अखाड़े के सहयोगी अग्नि, आह्वान व किन्नर अखाड़ा भी इसमें शामिल हुए। इससे पहले श्री निरंजनी अखाड़ा और श्री आनन्द अखाड़ा भी कुंभ विसर्जन की घोषणा कर चुके हैं। हालांकि, आधिकारिक रूप से एक अप्रैल को शुरू हुआ कुंभ मेले का आयोजन तीस अप्रैल तक होना था, लेकिन कोरोना की दूसरी भयावह लहर के चलते यह निर्णय निश्चित रूप से स्वागतयोग्य कदम है। बेहतर होता कि देश में संक्रमण की स्थिति को देखते हुए 14 अप्रैल के मुख्य स्नान के बाद ही ऐसी रचनात्मक पहल की गई होती। मुख्य स्नान पर आई खबर ने पूरे देश को चौंकाया था कि चौदह लाख लोगों ने कंुभ में डुबकी लगायी। निस्संदेह कुंभ सदियों से करोड़ों भारतीयों की आस्था का पर्व रहा है। यह समाज की आस्था का पर्व है, अत: समाज की सुरक्षा हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। समाज से ही आस्था है और कुंभ भी है। आस्था ही वजह है कि देश के कोने-कोने से करोड़ों लोग बिना किसी बुलावे के गंगा के तट पर डुबकी लगाने पहुंच जाते हैं। निस्संदेह मनुष्य से ही धर्म और संत समाज का अस्तित्व है।


सही मायनों में आपदा के वक्त धर्म के निहितार्थ बदल जाते हैं। यही धर्म का सार भी है; जिसका लक्ष्य लोक का कल्याण है, जिसकी फिक्र संत समाज को भी करनी चाहिए। यही वजह है कि कुंभ को टालने और मानवता धर्म का पालन करने का आग्रह राजसत्ता की तरफ से किया गया। देश में बड़ी विकट स्थिति है। हमारा चिकित्सातंत्र पहले ही सांसें गिन रहा है। अस्पतालों में बिस्तर, चिकित्सा सुविधाओं, आक्सीजन की कमी देखी जा रही है। ऐसे में इस संकट को विस्तार देने वाले हर कार्य से बचना हमारा धर्म ही है, जिसका सरल व सहज उपाय शारीरिक दूरी को बनाये रखना है। ऐसा करके भी हम कुंभ की सनातन परंपरा का ही निर्वहन कर सकते हैं। इसे अब भी प्रतीकात्मक रूप से मनाकर संत समाज आपातकाल के धर्म का पालन कर सकता है। इस समय लाखों लोगों का जीवन बचाना ही सच्चा धर्म है। जब देश दुखी है तो कोई भी धार्मिक आयोजन अपनी प्रासंगिकता खो देगा। अतीत में भी मानवता की रक्षा के लिये कुंभ के आयोजन का स्थगन हुआ है। वर्ष 1891 में हरिद्वार कुंभ में हैजा-कॉलरा फैलने के बाद मेला स्थगित किया गया। वर्ष 1897 में अर्धकुंभ के दौरान प्लेग फैलने पर मेला स्थगित किया गया था। यही आपातकाल का धर्म ही है कि मानवता की रक्षा की जाये। वक्त का धर्म है कि कुंभ को टाला जाये अथवा प्रतीकात्मक रूप में आगे के पर्वों का निर्वाह किया जाये। यह मुश्किल समय विवेकपूर्ण फैसले लेने की मांग करता है।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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