ऐसे वक्त में जब देश में जारी कोरोना संकट से अस्त-व्यस्त जिंदगी में आम लोगों की आमदनी में गिरावट आई है और क्रय शक्ति घटी है, लगातार बढ़ती महंगाई कष्टदायक है। यह महंगाई केवल पेट्रोल-डीजल व ईंधन के दामों में ही नहीं, खाद्य पदार्थों व फल-सब्जियों में भी नजर आ रही है। वैसे तो लोग पहले ही महंगाई की तपिश महसूस कर रहे थे, लेकिन अब हाल में आये थोक महंगाई के आंकड़ों ने उस तपिश पर मोहर लगा दी है। चिंता की बात यह है कि देश में थोक महंगाई दर बीते आठ सालों के मुकाबले उच्चतम स्तर पर जा पहुंची है। बताते हैं कि इससे पहले वर्ष 2012 में थोक कीमतों पर केंद्रित मुद्रास्फीति 7.4 फीसदी के उच्चतम स्तर पर थी। इस वृद्धि के मूल में कच्चे तेल व अन्य धातुओं की कीमतों में हुए इजाफे को कारक माना जा रहा है। लेकिन चिंता की बात यह है कि जो महंगाई की दर फरवरी माह में महज 4.17 फीसदी थी, वह महज एक माह में लगभग दुगनी 7.39 कैसे पहुंच गई। ऐसे में सरकार को मुश्किल वक्त में महंगाई की इस छलांग के कारणों की पड़ताल करनी चाहिए। निस्संदेह जब देश का निम्न और मध्य वर्ग रोजी-रोटी के सवाल से जूझ रहा है, अर्थव्यवस्था संवेदनशील स्थिति में है, आसमान छूती महंगाई चुभने वाली है। ऐसे में सरकारी नीतियों में संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जाती है। जाहिरा तौर पर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में आया उछाल भी थोक की मुद्रास्फीति बढ़ाने में एक कारण रहा है, जिसके चलते देश में पेट्रोल व डीजल के दामों में खासी तेजी आई। तभी फरवरी में 0.58 फीसदी रहने वाली ईंधन की मुद्रास्फीति मार्च में करीब साढ़े दस फीसदी तक जा पहुंची। वैसे सरकार की तरफ से भी कोई गंभीर प्रयास महंगाई पर काबू पाने के लिये नहीं किये गये। यहां तक कि केंद्रीय बैंक की नीतियां भी महंगाई को उर्वरा भूमि देती रही।
दरअसल, कोरोना संकट के मुकाबले के लिये बीते साल देश में जो सख्त लॉकडाउन लगा, उसका देशव्यापी प्रभाव नजर आया। अर्थव्यवस्था ने तेजी से गोता लगाया। ऐसे में दिसंबर के बाद के दो महीनों में अर्थव्यवस्था जब पटरी पर लौटती नजर आई तो सरकार की प्राथमिकता अर्थव्यवस्था को गति देने की थी, न कि महंगाई रोकने की। लॉकडाउन के दौरान जो कीमतें ठहरी हुई थीं, उसमें अब उछाल नजर आया। उपभोक्ताओं से मनमानी कीमतें वसूली जाने लगीं। एक दृष्टिकोण यह भी रहा कि देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये कुछ महंगाई स्वीकार्य है, जिससे उत्पादकों के कारोबार को गति मिल सके। तभी पिछले कुछ महीनों में स्थिति सामान्य होते ही बिक्री में गति के साथ ही कीमतों में तेजी देखने में आई। खाद्य वस्तुओं में ही नहीं, फल व सब्जियों के दामों में भी। आमतौर पर देश में मौसम के चरम यानी गर्मी की तेजी के साथ ही कीमतों में उछाल देखा जाता है जो अब की बार मार्च में ही नजर आने लगा। एक बार फिर कोरोना संकट घातक दौर में पहुंच गया और रोज कमाकर खाने वाले तबके का रोजगार फिर संकट में है। ऐसे में सरकार को महंगाई नियंत्रण की दिशा में गंभीर पहल करनी चाहिए। कमर तो मध्य वर्ग की भी टूटी है। जो अपनी कुल जमा पूंजी की बचत पर जिंदगी चला रहा था, उसका जीवनयापन भी महंगाई के कारण अब सहज नहीं रहा। देश के महानगरों से कामगार वर्ग का पलायन शुरू हो गया है। इन्हें अपने राज्यों व गांव में रोजगार आसानी से नहीं मिलने वाला है। पिछले लॉकडाउन के बाद ये महीनों खाली बैठने के बाद फिर महानगरों की ओर लौटे थे। ऐसे लोगों पर महंगाई की मार ज्यादा नजर आयेगी। ऐसे में सरकार से महंगाई नियंत्रण की दिशा में संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जानी चाहिए। सरकार के साथ ही केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीतियों में बदलाव भी मददगार हो सकता है। साथ ही जमाखोरों पर नियंत्रण लगाना जरूरी है। अन्यथा टुकड़ों-टुकड़ों में लगने वाला लॉकडाउन और महंगाई मारक साबित हो सकती है।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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