चंद्रकांत लहारिया, जन नीति और स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ
कोरोना की इस दूसरी लहर में देश के लगभग सभी जिलों की स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई हैं। महामारी से निपटने के लिए जिन-जिन चीजों की दरकार होती है, उन सबमें कमी दिख रही है। फिर चाहे वे डॉक्टर हों, बेड, वेंटिलेटर, आईसीयू, दवाएं या फिर ऑक्सीजन। दुखद है कि अंतिम संस्कार के लिए भी लोगों को कतारों में खड़ा होना पड़ रहा है। हालांकि, यह भी सच है कि खास परिस्थितियों में मरीजों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी होने से स्वास्थ्य सेवाओं पर बोझ बढ़ना स्वाभाविक है।
बहरहाल, पिछले एक वर्ष में चिकित्सा और स्वास्थ्यकर्मियों को हमने नायक की तरह सम्मानित किया, पर देश के विभिन्न हिस्सों से उनके साथ दुव्र्यवहार, धमकी, हमले और मार-पीट की भी खबरें आईं। करीब दो हफ्ते पहले ही सोशल मीडिया पर एक बडे़ सरकारी अस्पताल के सीनियर डॉक्टर का वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें उनके साथ सार्वजनिक तौर पर दुव्र्यवहार किया गया था। यह एक बड़े राज्य की राजधानी की घटना है। पता चला, जो लोग डॉक्टर से अभद्रता कर रहे थे, वे निर्वाचित जन-प्रतिनिधि थे, जबकि डॉक्टर पिछले एक साल से कोरोना के नोडल ऑफिसर। इस घटना के बाद उनके इस्तीफे और फिर से पदस्थापना की भी खबर आई।
साफ है, यह महामारी हर मोर्चे पर देश के स्वास्थ्य तंत्र की परीक्षा ले रही है, और अपने गिरेबान में झांकने को कह रही है। हमें यह समझना होगा कि डॉक्टर व अन्य तमाम स्वास्थ्यकर्मी स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के माध्यम भर हैं। अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं तो निर्वाचित सरकारों के नीतिगत फैसलों और उन नीतियों पर प्रशासनिक मशीनरी व स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रबंधकों के संजीदा अमल पर निर्भर करती हैं। विभिन्न स्तरों पर चुने गए प्रतिनिधि व सरकारें ही हैं, जो हर परिस्थिति में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए जवाबदेह हैं। मगर असल में अग्रिम मोर्चे पर तैनात स्वास्थ्यकर्मी (डॉक्टर और नर्स) ही लोगों के गुस्से का निशाना बनते हैं। स्पष्ट है, विपरीत परिस्थितियों में भी अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं तत्कालीन सरकार द्वारा लिए गए नीतिगत फैसलों और निचले तंत्र द्वारा उनके अमल पर निर्भर करती हैं। इसीलिए, चुने हुए जन-प्रतिनिधियों की भूमिका काफी अहम हो जाती है। स्वास्थ्य सुविधाएं तैयार करने संबंधी फैसले लेने (या नहीं लेने) के लिए वही उत्तरदायी हैं। वित्तीय संसाधनों को आवंटित करने उनका फैसला ही अस्पतालों या स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करता है। स्वास्थ्य कर्मियों की नियुक्ति और उनकी मौजूदगी भी सरकार की नीतियां तय करती हैं। इसलिए, किसी जिले, राज्य या देश में स्वास्थ्य सेवाएं कितनी अच्छी या बुरी हैं, यह अमूमन चुने हुए नेता और सरकारों की जवाबदेही है।
मगर अपने देश में सरकार स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का बहुत कम हिस्सा, यानी सिर्फ 1.2 फीसदी (दुनिया में सबसे कम) खर्च करती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 कहती है कि राज्य सरकारों को स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपने बजट का आठ फीसदी खर्च करना चाहिए, मगर वे आज भी औसतन पांच प्रतिशत खर्च करती हैं। दुखद यह है कि 2001-02 से लेकर 2015-16 के बीच इसमें सिर्फ आधा फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। यह उदाहरण भर है कि स्वास्थ्य पर राज्य सरकारों के वायदे किस कदर अधूरे हैं। स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी और लोगों का अपनी जेब से स्वास्थ्य-खर्च दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, जो स्वास्थ्य में निवेश के सरकार के इरादों को बेपरदा करता है। देश के ज्यादातर राज्यों में चुने हुए नेताओं की सर्वोच्च प्राथमिकता में स्वास्थ्य नहीं है। पिछले कई वर्षों से यही प्रतीत होता रहा है कि सरकारों ने सेहत को लोगों की व्यक्तिगत जिम्मेदारी मान ली है। दिक्कत की बात यह है कि विपक्ष भी इस पर सवाल नहीं उठाता। यह मुद्दा जनादेश निर्धारित करने वाला कारक नहीं माना जाता। कोविड-19 के इस चरम में ही विधानसभा व पंचायतों के चुनाव हो रहे हैं, मगर स्वास्थ्य कोई मुद्दा नहीं है, जबकि इन चुनावों से लोगों की जान खतरे में डाली जा रही है। सवाल यह है कि अगर महामारी के समय भी स्वास्थ्य मुद्दा नहीं बनता, तो फिर भला कब यह चुनावी एजेंडा बनेगा? बहरहाल, कोरोना की इस दूसरी लहर ने मजबूत स्वास्थ्य सेवाओं के महत्व को उजागर किया है। अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं का एक मापक यह है कि 3,000 से 10,000 की आबादी पर कम से कम एक डॉक्टर और नर्स के साथ बेहतर प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं लोगों को मिलें। मगर अपने यहां ग्रामीण इलाकों में यह सुविधा 25,000 की आबादी पर और शहरों में 50,000 की आबादी पर उपलब्ध है। इसका यह भी अर्थ है कि भारत आज जिन स्वास्थ्य चुनौतियों का मुकाबला कर रहा है, उसकी एक वजह यह है कि पिछले सात दशकों में स्वास्थ्य सेवाओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। संविधान के मुताबिक, स्वास्थ्य राज्य का विषय है। यानी, स्वास्थ्य सेवाओं की ज्यादातर जिम्मेदारी राज्यों पर है। मगर इसका यह मतलब नहीं कि केंद्र सरकार इसके लिए जवाबदेह नहीं है। विशेषकर, स्वास्थ्य आपातकाल, महामारी जैसी परिस्थितियों में उसे ज्यादा जिम्मेदार बनाया गया है। देश का 74वां संविधान संशोधन कहता है कि नगर निगम और नगर पालिका जैसे स्थानीय शहरी निकायों का यह कर्तव्य है कि वे शहरी क्षेत्र में प्राथमिक व सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराएं। देखा जाए, तो स्वास्थ्य विभिन्न स्तरों पर हर निर्वाचित सदस्य की जिम्मेदारी है, फिर चाहे वे पंचायत प्रतिनिधि हों, पार्षद, विधायक या फिर सांसद। साफ है, देश के स्वास्थ्य तंत्र और सेवाओं को तुरंत मजबूत करने की जरूरत है, और यह तभी संभव होगा, जब लोग अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से यह पूछना शुरू करेंगे कि आखिर किस तरह उन्होंने अपने क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारा है? हमें आज से ही यह पूछना शुरू कर देना चाहिए। आप अपने पार्षद से यह पूछें कि क्या हर 10,000 की आबादी पर वार्ड में स्वास्थ्य सुविधाएं मौजूद हैं? विधायक, सांसद जैसे हर चुने हुए प्रतिनिधि से भी यही सवाल करें। इसी तरह से आप बतौर जिम्मेदार नागरिक देश के स्वास्थ्य तंत्र और इसकी सेवाओं को मजबूत बनाने में अपना योगदान दे सकते हैं। और, इसी तरह से भारत भी भविष्य में महामारियों से निपटने के लिए तैयार हो सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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