भारत विरोध की फसल काटने वाले पाक हुक्मरानों को आखिर 24 घंटे में ही आंतरिक दबाव के चलते आवश्यक वस्तुओं के आयात करने के फैसले को वापस लेना पड़ा। दशकों से यह सिलसिला चला आ रहा है कि दोनों देशों के बीच पैदा होने वाली तल्खी के बाद व्यापार संबंध, क्रिकेट, पर्यटन आदि पर गाज गिरती रही है, जिसे स्वाभाविक प्रतिक्रिया मान लेना चाहिए। जो राजनीतिक निर्णयों में भी झलकती है। जब बुधवार को कैबिनेट की आर्थिक समन्वय समिति की बैठक में पाकिस्तान के वित्तमंत्री अजहर द्वारा भारत से चीनी व कपास आयात करने का फैसला लिया गया तो लगा था कि दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलेगी। इस फैसले को बेहतर संबंध बनाने की दिशा में उठाया गया तार्किक कदम माना जाने लगा था। आजादी के बाद हुए विभाजन ने कई ऐसे मुद्दों को जन्म दिया, जो लगातार सुलगते रहते हैं, जिसके चलते भारत विरोध की धारणा को लगातार पाक हुक्मरानों द्वारा सींचा जाता रहा है। यही वजह है कि भारत से व्यापार संबंध फिर से कायम करने के प्रयासों का विपक्षी दलों व कट्टरपंथी समूहों द्वारा मुखर विरोध किया जाने लगा, जिसके चलते 24 घंटे के भीतर ही पाकिस्तान के संघीय मंत्रिमंडल ने बिना कोई ठोस वजह बताये ईसीसी के फैसले को पलट दिया। इसे विदेशी मामलों के जानकार इस्लामी कट्टरपंथियों की जीत बता रहे हैं जो भारत-पाक में बेहतर रिश्तों की उम्मीद को बंधक बनाये हुए हैं। इनके द्वारा भारत शासित मुस्लिम बहुल कश्मीर का मुद्दा प्रमुख रूप से उठाया जाता रहा है। वे इस उपमहाद्वीप में शांति के प्रयासों को पलीता लगाते रहते हैं। भारत-पाक में रिश्तों के सामान्य बनाने की दिशा में उठाये गये हालिया कदमों पर यू-टर्न लेने के बाबत कहा गया कि जब तक कश्मीर का बदला गया दर्जा बहाल नहीं होगा, तब तक कारोबारी रिश्तों का सामान्य होना संभव नहीं होगा।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करके उसे केंद्रशासित प्रदेश बनाये जाने के बाद पाक प्रधानमंत्री इमरान खान संयुक्त राष्ट्र से लेकर इस्लामिक संगठनों में भारत के खिलाफ आग उगलते रहे हैं। वे बाकायदा वर्ष 2019 से भारत के खिलाफ एक धार्मिक युद्ध छेड़ने की कवायद में जुटे रहे हैं। पाकिस्तान दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पत्र लिखकर व्यक्त की गई सद्भावना के बाद इमरान खान ने पिछले हफ्ते रचनात्मक और परिणाम उन्मुख संवाद के लिये अनुकूल वातावरण बनाये जाने पर बल दिया था। वास्तव में दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाने के प्रयासों की शुरुआत तब हुई जब दोनों देशों के सैन्य संचालन महानिदेशकों द्वारा संघर्ष विराम की घोषणा करने वाला संयुक्त बयान जारी किया गया था। यह प्रयास लंबे समय से एलओसी व अन्य क्षेत्रों में जारी संघर्ष को टालने के कदम के रूप में देखा गया। इतना ही नहीं, गत 18 मार्च को इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग के पहले सत्र में पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा ने दोनों देशों के बीच बेहतर रिश्तों की उम्मीद जगायी थी। उन्होंने पड़ोसी और क्षेत्रीय देशों के आंतरिक मामलों में किसी तरह का हस्तक्षेप न करने का वायदा किया था। उसके बाद अब दोनों देशों के बीच व्यापार बहाली के प्रयासों पर यू-टर्न लेने ने कई सवालों को जन्म दिया है। निस्संदेह पाकिस्तानी नीतियों को देखते हुए यह प्रकरण ज्यादा नहीं चौंकाता। ऐसे यू-टर्न कई बार देखने को मिले हैं। पाकिस्तान का इतिहास वार्ता, विश्वासघात, आतंकवाद और फिर वार्ता की तरफ बढ़ने का रहा है। इसलिये हालिया यू-टर्न को बड़े अप्रत्याशित घटनाक्रम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। पाक सरकार के फैसले कट्टरपंथियों और सेना के दबाव से विगत में भी प्रभावित होते रहे हैं जो भारत विरोध की मनोग्रंथि पर आधारित होते हैं। लेकिन एक बात तय है कि जब तक पाक के हुक्मरान अपने फैसलों में लचीलापन और प्रगतिशीलता नहीं दिखाते, तब तक पाकिस्तान की तरक्की संभव नहीं है। क्षेत्रीय शांति के लिये भी यह एक अनिवार्य शर्त है।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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