अरुण मायरा, पूर्व सदस्य, योजना आयोग
भारत को आने वाले दिनों में एक बड़ा काम करना है। उसे अपनी अर्थव्यवस्था ‘फिर से बेहतर’ बनानी है, जो कोविड महामारी के पहले भी अच्छी तरह काम नहीं कर रही थी। देश में न तो पर्याप्त रोजगार पैदा हो रहे थे, और न कामगारों व किसानों की आमदनी बढ़ रही थी। लोगों को भी अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पा रही थीं। बेशक, सरकार के हाथ तंग हैं, पर उसे ऐसे रास्ते खोजने होंगे कि सार्वजनिक सेवाओं के लिए पैसों की कमी न होने पाए। पूंजी जुटाने के लिए ही सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (पीएसई) का निजीकरण किया जा रहा है, और ऐसी निजी कंपनियां खोजी जा रही हैं, जो इनको अधिक कुशलता से चला सकें।
पिछले महीने अमेरिका के प्रतिभूति और विनिमय आयोग (एसईसी) ने यह कहा कि ईएसजी (पर्यावरण, सामाजिक व शासकीय) संकेतकों के मुताबिक तमाम सूचीबद्ध कंपनियों को अब अपने सर्वांगीण प्रदर्शन की जानकारी साझा करनी होगी, यानी यह बताना होगा कि पर्यावरण और सामाजिक हालात पर उनके कारोबार का क्या प्रभाव पड़ रहा है। सिर्फ आर्थिक लेखा-जोखा (राजस्व-वृद्धि, लाभ व शेयरधारक मूल्य) से वे अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकतीं। सभी उद्यमों को इस मामले में पारदर्शी होना ही चाहिए कि वे समाज के लिए क्या कर रहे हैं? एसईसी समझ गया है कि कंपनियों के व्यापक सार्वजनिक उद्देश्यों को आधिकारिक जामा पहनाने का वक्त आ गया है। ‘कुल शेयर धारक रिटर्न’ अब कंपनी की सेहत का अच्छा मापक नहीं है, और न ही सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी)अर्थव्यवस्था का।
अगर इस महामारी ने वैश्विक समस्याएं हल करने वालों को कोई सबक सिखाया है, तो वह यह कि लॉकडाउन और वैक्सीन जैसे सख्त उपायों के दुष्प्रभावों से सावधान रहने की जरूरत है। ये समस्या का जितना समाधान नहीं करते, उससे अधिक तंत्र की सेहत बिगाड़ देते हैं। इसीलिए, केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था के लिए वैसी दवा न ढूंढ़े, जिसके दुष्प्रभाव हमें पहले से पता हैं।
भले ही, निजीकरण से सरकार को जरूरी पैसे मिल सकते हैं, पर इसकी रूपरेखा और सीमा को दुरुस्त किए बिना ऐसा करना अर्थव्यवस्था व समाज को कई रूपों में नुकसान पहुंचाएगा। निजीकरण दवा का ऐसा ‘हाई डोज’ है, जिसका इस्तेमाल मार्गरेट थैचर ने ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के लिए किया था, पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा को इससे बाहर रखा गया था। निजी स्वास्थ्य सेवा जैसी दवा की लत तो अमेरिका को है, जिसकी गड़बड़ियां लंबे समय से जगजाहिर हैं और कोविड महामारी के दौरान यह कहीं अधिक गहरी होती दिखीं। अपने यहां कई सार्वजनिक उपक्रमों की सेहत ठीक करनी होगी, और निजी उद्यमों की सार्वजनिक जवाबदेही में सुधार लाना होगा। इसके लिए एक बेहतर व्यवस्था बनाना आवश्यक है। मसलन, उद्यम ऐसे होने चाहिए, जो अपने तमाम संसाधनों का कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करें और सार्वजनिक जरूरतों के मुताबिक बेहतर प्रदर्शन भी करें। इसकी रूपरेखा बनाई भी गई है। करीब 10 साल पहले जिम्मेदार उद्यमियों ने भारतीय कंपनियों के लिए ‘नेशनल वॉलंटरी गाइडलाइन्स’ (स्वैच्छिक राष्ट्रीय कार्ययोजना) बनाई थी। लगभग उसी समय, दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी सार्वजनिक उद्यमों के प्रशासनिक कामकाज में सुधार के लिए ‘एगेनफिकेशन’ (सरकारी दखलंदाजी से मुक्त अद्र्ध-सरकारी संस्था) की सिफारिश की थी। वित्तीय और सामाजिक क्षेत्रों से भी ‘सामाजिक उद्यमों’ की नई अवधारणाएं उभर रही हैं। ऐसे में, हमें सार्वजनिक कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने से पहले इन नई अवधारणाओं पर गौर करना चाहिए। सार्वजनिक उद्देश्यों को पूरा करने वाली पेशेवर कंपनियां तीन स्तंभों पर टिकी होनी चाहिए। पहला, उद्देश्यों में पारदर्शिता। उद्यम चाहे सरकारी हों या निजी, उनका एकमात्र मकसद लाभ कमाना और निवेशकों की संपत्ति को बढ़ाना नहीं हो सकता। लक्ष्य व उसकी रूपरेखा साफ-साफ परिभाषित होनी चाहिए और कंपनियों व उनके कर्ता-धर्ताओं के प्रदर्शन को परखने का अधिकार जनता को मिलना चाहिए।
दूसरा, कंपनी के प्रबंधकों को इतनी आजादी होनी चाहिए कि लक्ष्य को पाने का वे सर्वोत्तम रास्ता खोज सकें। इसमें नौकरशाहों का दखल न हो। हां, एक स्वतंत्र बोर्ड द्वारा इनकी निगरानी की जा सकती है। और तीसरा स्तंभ है, सामाजिक मूल्यों के मुताबिक उन सीमाओं का निर्धारण करना, जिनके भीतर बोर्ड अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर सके। आर्थिक फैसलों व मानव संसाधन के प्रबंधन के लिए भी व्यापक दिशा-निर्देश जरूरी हैं। निजी कंपनियों को अपने आर्थिक फैसले समझदारी से लेने होंगे। हालांकि, आर्थिक उदारीकरण के कारण एग्जीक्यूटिव पे (कार्यकारी स्तर के अधिकारियों के वेतन-भत्ते) पर नियंत्रण किया जाता रहा है। इसने पिछले 30 वर्षों में निजी कंपनियों के सीईओ (या अन्य शीर्ष अधिकारी) व कामगारों की आय की खाई दस गुना से अधिक बढ़ा दी है। बेशक, शीर्ष अधिकारियों के पास ज्यादा जिम्मेदारी होती है और किसी कंपनी के समग्र प्रदर्शन में वे कहीं ज्यादा योगदान दे सकते हैं। मगर यह समझ से परे है कि पिछले तीन दशकों में उन्होंने भला कैसे कंपनी के हित में दस गुना अधिक मूल्य जोड़ना शुरू किया है। वित्तीय नियंत्रकों द्वारा संचालित कंपनियां बहुत दिनों तक काम की नहीं रहतीं, हालांकि उनसे अल्पकालिक फायदा हो सकता है। इन दिनों देश की अर्थव्यवस्था मुख्यत: केंद्रीय बैंकों और वित्त मंत्रालयों द्वारा चलाई जा रही है, जिसमें धन व वित्त का प्रबंधन आर्थिक सिद्धांतों के मुताबिक होता है। वित्तीय प्रबंधन से कतई इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन कंपनियों व देशों के प्रबंधकों का यही अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए। सभी निजी कंपनियां अपने लाभ के लिए सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग करती हैं, जबकि उनको इसके लिए जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता। जैसे, भारत की सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों का उल्लेखनीय आर्थिक प्रदर्शन सरकार द्वारा वित्त-पोषित शैक्षणिक संस्थानों के कारण हुआ था, जहां से उन्हें उच्च गुणवत्ता के संसाधन बहुत कम लागत में मिल गए थे। लिहाजा हमें इन नैतिक सवालों का जवाब ढूंढ़ना ही होगा कि 21वीं सदी में खरे उतरने वाले उद्यमों की रूपरेखा क्या हो? किसके लिए हमारे कथित पूंजी-निर्माता (यानी कारोबारी) धन पैदा करते हैं? इस पूंजी को बनाने में वे किन संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं? और इसका कितना हिस्सा वे समाज को लौटाते हैं (और कब), और कितना हमारी अर्थव्यवस्था के कैशियर होने के नाते वे अपने पास रखते हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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