जोश रोजिन
जनमानस में गहरे पैठ कर चुकी बातों को नकारना बहुत मुश्किल है। अपने जीवन संबंधी आलेख 'वाइ ऑरवेल मैटर्स' में लेखक क्रिस्टोफर हिचेन्स ने 'पसंद न आने वाले तथ्यों का सामना करने' के महत्त्व पर जॉर्ज ऑरवेल के उद्धरणों का उल्लेख किया है। ऑरवेल जानते थे कि अपनी राजनीतिक संबद्धता, झुकाव और अतीत के निष्कर्षों से स्वयं को अलग कर पाना मुश्किल तो है लेकिन असहज करने वाली वास्तविकताओं और ज्वलंत सवालों का सामना करने के लिए महत्त्वपूर्ण भी है। ज्वलंत सवाल जैसे कि क्या हो यदि सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (सीडीसी) के पूर्व निदेशक रॉबर्ट रेडफील्ड ने वुहान लैब के बारे में जो कहा, वही सच हो तो? जब तक रेडफील्ड ने नहीं कहा था कि कोविड-19 महामारी चीन की वुहान लैब में किसी मानवीय त्रुटि का नतीजा हो सकती है, तब तक इस अपुष्ट परिकल्पना के बारे में चर्चा करना भी वर्जित समझा जाता था।
वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, वायरस के मूल स्रोत के मुद्दे का बुरी तरह राजनीतिकरण कर दिया गया है। चीन सरकार और वुहान की लैब में चमगादड़ों के कोरोनावायरस पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों के करीबी सहयोगी अमरीकी वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस के मूल स्रोत पर बात करने वाला चाहे कोई भी हो उसे साजिशी, या और बुरा कहें तो ट्रंप समर्थक करार दे दिया। हालांकि यह सही है कि इस राजनीतिकरण में ट्रंप प्रशासन ने भी योगदान दिया, लेकिन मौजूदा बाइडन प्रशासन ने भी वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के संदिग्ध और अब तक अज्ञात कार्य के बारे में ट्रंप टीम के तथ्यात्मक दावों की पुष्टि की है। यह वुहान लैब के उस दावे को सीधी चुनौती है जिसमें लैब पारदर्शी और ईमानदार होने का दावा कर रही है। रेडफील्ड ने हाल ही सीएनएन को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि जिस तरह वायरस सक्रिय है, उससे यही लगता है कि यह वुहान लैब में चल रहे शोध का ही परिणाम है। इसके बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के महानिदेशक टेड्रोस ए. घेब्रेयेसस ने चीनी वैज्ञानिकों के साथ डब्ल्यूएचओ के अपने संयुक्त अध्ययन पर उंगली उठाते हुए स्पष्ट तौर पर कहा कि वायरस की 'लैब एक्सीडेंट' परिकल्पना की और अधिक गहनता से जांच की जरूरत है।
अमरीका व 13 अन्य देशों ने भी एक संयुक्त वक्तव्य जारी कर इस मामले की निष्पक्ष एवं स्वतंत्र जांच का आह्वान किया है। रट्जर्स यूनिवर्सिटी में सूक्ष्मजीव विज्ञानी एवं जैव सुरक्षा विशेषज्ञ रिचर्ड एब्राइट के अनुसार, सीडीसी के पूर्व निदेशक रेडफील्ड जो बात कह रहे हैं उसे 'गेन-ऑफ-फंक्शन' शोध कहा जाता है (इसके तहत जंगलों से पकड़े गए वायरस को लैब में लाकर अधिक खतरनाक बनाया जाता है) और इसके हर आयाम की नए सिरे से जांच की जरूरत है। भले ही यह बात सिद्ध न हो कि कोरोना वायरस लैब की देन है, फिर भी यह तथ्य कि ऐसा हो सकता है, चिंताजनक है। क्योंकि इससे साबित होता है कि ऐसा शोध जोखिम भरा है, जिससे संभव है कि यह महामारी फैली हो और निश्चित ही भविष्य में पुन: कोई महामारी फैल सकती है। वायरस फैलने की भविष्यवाणी संबंधी रिसर्च 200 मिलियन डॉलर से बढ़कर 1.2 बिलियन डॉलर के ग्लोबल वायरोम प्रोजेक्ट का रूप ले सकती है, जिसका मसकद मानव को संक्रमित कर सकने वाले 5 लाख संभावित वायरस खोजना है। लेकिन कई वैज्ञानिकों का तर्क है कि बजाय जंगलों में वायरस पकडऩे पर पैसा बर्बाद करने के महामारी फैलने के संभावित इलाकों की निगरानी और जांच में निवेश करना बेहतर होगा।
फ्लिंडर्स यूनिवर्सिटी के मेडिकल प्रोफेसर निकोलाइ पेत्रोव्स्की, जिन्होंने एब्राइट और दो दर्जन से ज्यादा वैज्ञानिकों के साथ मिलकर स्वतंत्र जांच के लिए खुला पत्र लिखा है, कहते हैं - चीन को अब लगने लगा है कि वह वुहान लैब की असली जांच को रोक नहीं सकेगा इसलिए दुनिया की तमाम ऐसी लैब की जांच की दलील दे रहा है। पेत्रोव्स्की के मुताबिक यह सही है, पर तत्काल पूरा ध्यान वुहान लैब पर देने की जरूरत है। और अगर रेडफील्ड का दावा सही साबित होता है तो जाहिर है कई असहज करने वाले तथ्यों और उनसे सामने आने वाली सचाइयों को हमें राजनीति से ऊपर उठकर स्वीकारना ही होगा।
(लेखक ग्लोबल ओपिनियन सेक्शन में स्तम्भकार हैं
द वॉशिंगटन पोस्ट)
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