- गुलाब कोठारी
जीवन के दो प्रधान विभाग हैं- शरीर और आत्मा। शरीर का क्षेत्र कार्य है। आत्मा का क्षेत्र ज्ञान है। कर्म स्थूल है। ज्ञान सूक्ष्म है। आत्मा शाश्वत संस्था है। समस्त चराचर जगत् में यह आत्म तत्त्व विद्यमान रहता है। शरीर नश्वर है। मन-बुद्धि सहित शरीर क्षर संस्था है। किन्तु आत्मा और शरीर दोनों ही सृष्टि निर्माण के आवश्यक तत्त्व हैं। इनमें आत्मा ज्ञान भाग है तथा शरीर कर्म भाग है। कर्म ही विज्ञान भाग है। कर्म का आधार ज्ञान होता है। बिना ज्ञान के कर्म में प्रवृत्ति संभव नहीं होती है। ज्ञान जब तक उपयोगी ना हो तब तक उसका महत्त्व नहीं होता। अत: ज्ञान व कर्म दोनों ही जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक हैं।
ब्रह्म ही ज्ञान है। आत्म-ज्ञान को ही ज्ञान कहा है। बाहर के ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। अर्थात् कर्म ही विज्ञान है। वैदिक परिभाषा के अनुसार -'सबके भीतर वही एक प्रतिष्ठित है' इस एक का ज्ञान होना ही ज्ञान कहा जाता है। कृष्ण का उद्घोष-'ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:' इसी का प्रमाण है। इसी का एक अन्य प्रमाण गीता में ही है-'ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।' इस तथ्य को समझ लेना ज्ञान है।
कर्म माया का ही स्वरूप है। माया ही विज्ञान है। माया ही कर्म का हेतु है। माया के कारण ही ब्रह्म भिन्न-भिन्न स्वरूपों में दिखाई पड़ता है। माया ही चेतना है। माया ही क्षुधा है, अभाव है। यही नई सृष्टि का कारक बनती है। एक के अनेक बनने की कला ही विज्ञान कहलाती है।
ब्रह्माण्ड को सात लोकों - सत्यम्, तप:, जन:, मह:, स्व:, भुव: और भू: तथा स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी इन पंचपर्वों में विभाजित किया गया है। ब्रह्माण्ड के सात लोकों में प्रथम सत्य लोक है। इसे स्वयंभू कहते हैं। जल समुद्र में शेषशय्या पर लेटे विष्णु की नाभि से इनका जन्म होता है। ब्रह्म प्राण ही स्वयंभू कहलाता है। यह सृष्टि में अव्यय कहा जाता है। कृष्ण कहते हैं कि पुरुषों में मैं अव्यय पुरुष हूं तथा मेरी योनि महत् ब्रह्म है। यहां महत् ब्रह्म परमेष्ठी व सूर्य के बीच के अन्तरिक्ष को कहते हैं। स्वयंभू अग्नि लोक है तथा परमेष्ठी सोम लोक है। स्वयंभू के तपन और स्वेदन (तप) से जल समुद्र क्षीर सागर बनता है। यह परमेष्ठी लोक-सोम लोक अथवा विष्णु का लोक है। परमेष्ठी लोक में आग्नेय प्राण अंगिरा रूप में तथा सोम प्राण भृगु रूप में परिणत हो जाते हैं। इन्हीं के मेल से महद् लोक में सृष्टि के प्रथम षोडशी पुरुष सूर्य का जन्म होता है। यहां स्वयंभू पिता तथा विष्णु माता की भूमिका में होते हैं। आगे सूर्य पिता और चन्द्रमा माता के योग से पार्थिव सृष्टि उत्पन्न होती है। अन्न-वनस्पति का पोषण होता है। गीता में कृष्ण कहते है-'मैं ही चन्द्रमा हूं और सभी औषधियों का पोषण करता हूं-'पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:।' इसी प्रकार परमेष्ठी विष्णु अपने सोम से सूर्य रूप शिशु का पोषण भी करता है।
ब्रह्मा बीज प्रदान करने वाला पिता है। सारी सृष्टि उसी की सन्तान रूप में है अत: यही ब्रह्म विवर्त-कहलाता है। मां (जननी) जन्म देती है, पोषण करती है। शिशु के जीवन को नियोजित-संस्कारित-करती है। जन्म के बाद भी माता-पिता के प्राण शिशु के शरीर को चलाते हैं। फल बनने तक बीज का कार्य चालू रहता है। तभी बीज के अनुरूप फल प्राप्त होते हैं। यही स्थिति मानव रूप माता-पिता की होती है। पिता बीज प्रदान करने वाला ब्रह्म (ब्रह्म की सन्तान ब्रह्म) है। माता विष्णु है। इसी की नाभि में, क्षीर सागर में, ब्रह्मरूपी शिशु का पोषण होता है। वहीं से ब्रह्म स्वयंभू रूप में पृथ्वी पर अवतरित होता है। परमेष्ठी-चन्द्रमा-पृथ्वी-माता ही मातृलोक हैं। ये सभी जन्म देते हैं, पोषण करते हैं।
विष्णु के हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म सुशोभित रहते हैं। ये ही चारों मां के पोषण करने के चार प्रमुख स्तर हैं। मां का शरीर पृथ्वी है। गर्भस्थ शिशु को नाद (शंख) से अर्थात् लोरी सुना कर अथवा कथा आदि रूप से संस्कारित करती है। जीने के लिए जीव को प्राणवान (चक्र) या गतिमान बनाती है। इस प्रकार स्वयं विष्णु ही विष्णु की शक्ति होते हैं। गदा उस शक्ति को विश्व विवर्त में यात्रा करने का, संघर्ष झेलने का, साहस देती है। पद्म (कमल) जल से सृष्टि-कर्ता का ***** है। वायु चक्र है, शंख आकाश (नाद) है। चारों तत्त्व यानी पृथ्वी-जल-वायु-आकाश मां के अधीन हैं।
सम्पूर्ण सृष्टि-रचना का आधार शक्ति है। जीवन की सारी गतिविधियां स्त्री के चारों ओर ही घूमती हैं। गतिविधि का मूल ही माया है। ब्रह्म तो मात्र साक्षी है। शिव है तो शक्ति है। शक्ति शिव के भीतर ही है। जब शक्ति सुप्त है, तब शिव भी शव की तरह निष्क्रिय है। पुरुष भी शिव है, नारी भी शिव है। दोनों की अपनी-अपनी शक्तियां हैं। ये शक्तियां ही दोनों के जीवन को चलाती हैं। शक्ति या ऊर्जा का कोई ***** नहीं होता। प्रकृति के तीन रूप है-सत-रज-तम। लक्ष्मी, सरस्वती, काली इनका शक्ति रूप है। प्रत्येक नारी इन्हीं त्रिगुणों के आवरणों के सहारे अपने मायाभाव को प्रकट कर पाती है। ये बाहरी स्त्री के साथ भीतरी स्त्री के शक्ति रूप भी हैं। जीवन की सारी कामनाओं की पूर्ति के आधार भग नाम की छह शक्ति-स्वरूप हैं-धर्म, ज्ञान, वैराग्य, यश, श्री और ऐश्वर्य। यही जन्म-स्थिति-मृत्यु का आधार भी है।
मातृभाव जननी वाचक है। एक माता जो स्थूल शरीरधारी है, हमें जन्म देने वाली है। एक सूक्ष्म जगत् की माता है, जो सृष्टि भाव पैदा करने वाली है। मातृभाव माया का ही लोककल्याणमयी स्वरूप है। इसीलिए देवी शक्ति से प्रार्थना की जाती है। वह प्रकृति स्वरूपा मां साक्षात् मायाभाव में होती है। मीठी से मीठी, कठोर से कठोरतम। वह जन्म देती है, पोषण करती है, निर्माण करती है। हित-अहित का चिन्तन करती रहती है, सुविधा का ध्यान रखती है। स्वयं की असुविधा में चुप रहती है। तीनों शरीरों (स्थूल-सूक्ष्म-कारण) की तीन माताएं होती हैं।
यहां यह लिखना उचित होगा कि गर्भ का जल ही प्रसव के साथ बाहर आता है। इसी का एक विशेष भाग क्षीर बनकर मां के स्तनों से प्रवाहित होता है। विष्णु की शक्ति ही लक्ष्मी है। प्रत्येक मां लक्ष्मी है। विष्णु के सभी कार्य सम्पादित करती है। आज विज्ञान ने भी कई जगह मां के कार्यों में बाधा डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परिवार नियोजन की गोलियों ने मां को स्तन और गर्भाशय के कैंसर उपहार में दिए। जिस सन्तान का जन्म अंधेरे में होता रहा, आज तीन हजार वॉट की रोशनी और वातानुकूलित स्थान पर वह अवतरित होने लगा है। विज्ञान यह कभी सोच ही नहीं पाएगा कि जिस सन्तान के प्रसव में मां को मृत्यु का अनुभव ही नहीं हो, तब उसका सन्तान के प्रति व्यवहार कितना बदल जाएगा। क्या मां के दूध की मात्रा पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा? सन्तान को भी प्रसव की वेदना नहीं होती। उसके स्मृति पटल पर क्या-क्या अंकित रह जाएगा?
लक्ष्मी का सारा निर्माण जल से-मिट्टी के रूप में होता है-शरीर सहित। रजत-स्वर्ण सभी इसी श्रेणी में आते हैं। ये सभी पदार्थ जड़ हैं। लक्ष्मी अचेतन है, विष्णु चैतन्य हैं। ब्रह्मा प्राण चेतना की प्रतिष्ठा हैं। यही हृदय केन्द्र है। शरीर में प्राण रूप से यही चेतना व्याप्त रहती है। यही जीव का अहंभाव है। इसी में मां का ममकार सृष्टि का विस्तार है, मायाभाव का दर्पण है।
सौजन्य - पत्रिका।
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