राजीव दासगुप्ता, प्रोफेसर (कम्यूनिटी हेल्थ), जेएनयू
ऐसा लगता है कि स्वास्थ्यकर्मियों सहित अग्रिम मोर्चे पर तैनात तमाम कोरोना योद्धाओं को सर्वप्रथम टीका लगाने की रणनीति उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी है। 16 जनवरी से शुरू हुए टीकाकरण अभियान में शुरुआती एक महीने स्वास्थ्यकर्मियों को टीका लेना था, और उसके बाद अग्रिम मोर्चे के अन्य कर्मचारियों को। मगर ताजा आंकडे़ बताते हैं कि करीब तीन करोड़ ऐसे योद्धाओं में से 2.36 करोड़ ने अपना पंजीयन कराया और 47 फीसदी ने ही टीके की दोनों खुराकें लीं। पंजीकृत लोगों में से करीब 38 फीसदी (91 लाख) लोगों ने सिर्फ एक खुराक ली। इसका एक अर्थ यह भी है कि 15 फीसदी ‘फ्रंटलाइन वर्कर्स’ ने टीका नहीं लिया। इसके तीन निहितार्थ हैं, जो चिंताजनक हैं। पहला, अग्रिम मोर्चे पर तैनात करीब आधे कर्मचारियों में कोविड-संक्रमण का खतरा ज्यादा है, क्योंकि उन्होंने या तो टीका नहीं लिया है अथवा महज एक खुराक ली है। दूसरा, मौजूदा दूसरी लहर से लड़ने के लिए यही कार्यबल तैनात है, और यदि ये बीमार पड़ते हैं, तो कोरोना के खिलाफ हमारी लड़ाई काफी प्रभावित हो सकती है। और तीसरा, यह समझ से परे है कि जिन लोगों से उम्मीद की जाती है कि वे कोरोना के खतरे व बचाव को लेकर दूसरों को जागरूक करेंगे, उनमें टीके को लेकर आखिर इतनी झिझक क्यों है? इसीलिए ऐसे लोगों का टीका न लेना, टीकाकरण अभियान को चोट पहुंचा सकता है।
इन योद्धाओं का वैक्सीन पर विश्वास दरअसल, टीके की प्रभावशीलता और सुरक्षा पर लोगों का भरोसा बढ़ाता। स्वास्थ्य सेवाओं और स्वास्थ्यकर्मियों की विश्वसनीयता और क्षमता पर भी इसका असर पड़ता और यह नीति-नियंताओं को वैक्सीन को लेकर फैसले लेने को प्रेरित करता। टीके को लेकर आत्ममुग्धता वहीं है, जहां बीमारी के खतरे को लेकर सवाल कम हैं और टीकाकरण को आवश्यक बचाव उपाय नहीं माना जाता। यहां टीकाकरण की सुविधा भी एक महत्वपूर्ण कारक है, क्योंकि 19 अप्रैल को लिए गए फैसले के मुताबिक, 1 मई से देश के सभी वयस्क कोरोना का टीका ले सकते हैं। अभी यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि कोरोना की दूसरी लहर कब तक चलेगी और संक्रमण व मौत के मामले में यह कितनी ‘बड़ी’ साबित होगी। इन्फ्लूएंजा महामारी का इतिहास और अमेरिका में कोविड-19 के ट्रेंड को यदि देखें, तो यही कहा जा सकता है कि भारत में चल रही दूसरी लहर संक्रमण और मौत के मामले में पिछले साल की पहली लहर से बीस साबित होगी। वायरस के नए ‘वैरिएंट’ (विशेषकर ब्रिटेन वैरिएंट) और इसके ‘डबल म्यूटेट’ के कारण इसका प्रसार इतना अधिक हो गया है। हमें अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को इसी आधार पर दुरुस्त करना होगा।
मीडिया रिपोर्टें बता रही हैं कि देश के तमाम हिस्सों में अव्वल तो स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं और जहां हैं, वहां मरीजों का दबाव काफी ज्यादा है। विशेषकर महानगरों और शहरों में अस्पताल पूरी तरह से भर गए हैं। किसी महामारी के प्रबंधन में यह सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है, और इस स्थिति से तत्काल पार पाने की जरूरत है। बेशक केंद्र व राज्य सरकारें पिछले एक साल से (जब से महामारी आई है) स्वास्थ्य सेवाओं को ठीक करने में जुटी हुई हैं, लेकिन संक्रमण जब अचानक से तेज उछाल आया, तो तमाम व्यवस्थाएं ढहती नजर आईं। आज अस्पतालों में बेड की कमी हो गई है, ऑक्सीजन की पर्याप्त आपूर्ति नहीं हो रही है और जरूरी दवाओं को टोटा पड़ता जा रहा है। चूंकि सरकारें फिर से मुस्तैद हो गई हैं, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि आपूर्ति-शृंखला को ठीक कर लिया जाएगा। रोगियों की बढ़ती संख्या को देखकर अस्थाई अस्पताल भी बनाए जा रहे हैं। यहां पर विशेषकर उन मरीजों को जगह दी जा रही है, जिन्हें विशेष देखभाल की जरूरत है।
कोरोना की इस लड़ाई में जरूरी है कि पर्याप्त संख्या में कुशल व प्रशिक्षित मानव संसाधन हमारे पास उपलब्ध हों। इस मोर्चे पर तीन तरफा चुनौतियों से हम मुकाबिल हैं। पिछले साल सरकार ने स्वास्थ्य और गैर-स्वास्थ्य कर्मचारियों (विभिन्न विभागों से बुलाए गए कर्मी) को मिलाकर एक समग्र प्रयास शुरू किया था। मगर जब मामले कम आने लगे, तो गैर-स्वास्थ्य कर्मचारियों को उनके मूल विभागों में वापस भेज दिया गया। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि सरकारी व सामाजिक क्षेत्र की तमाम सेवाएं फिर से शुरू हो गई थीं। फिर, स्वास्थ्यकर्मी गैर-कोविड मरीजों पर भी ध्यान देने लगे, क्योंकि सर्जरी जैसे मामलों में ‘बैकलॉग’ काफी ज्यादा हो गया है। स्वास्थ्यकर्मियों को टीकाकरण अभियान भी आगे बढ़ाना है। इन सबके कारण ‘टेस्टिंग ऐंड ट्रीटिंग’ (जांच और इलाज) जैसी अनिवार्य सेवाओं में मानव संसाधन की कमी दिखने लगी है। साफ है, हमें तमाम राज्यों तक अपने संसाधनों का विस्तार करना होगा। कुछ हफ्तों तक यह दूसरी लहर चल सकती है। इसमें संक्रमण के बहुत मामले सामने आ सकते हैं। फिलहाल सक्रिय मरीजों की संख्या 20 लाख को पार कर चुकी है। ऐसे में, आने वाले दिनों में नए रोगियों और ठीक होने वाले मरीजों की संख्या में अंतर और बढ़ जाएगा। लिहाजा, यह सही वक्त है कि सशस्त्र बलों को मैदान में उतारा जाए और उनकी क्षमता का भरपूर इस्तेमाल किया जाए। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने अस्पताल बनाकर इस काम में अपना योगदान देना शुरू कर दिया है। आपदा के दौरान हमें उन्हें मोर्चे पर लगाना ही चाहिए, साथ-साथ पिछले साल की तरह राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम को भी लागू कर देना चाहिए।
महामारी के इस दूसरे साल में जीवन और आजीविका की रक्षा पर सरकार को बराबर तवज्जो देनी होगी। कुछ मामलों में, लॉकडाउन या अन्य प्रतिबंधों को लेकर राज्य और अदालतों का रुख एक-दूसरे से अलग है। लेकिन हमें अस्पतालों की क्षमता देखकर और तेज संक्रमण को रोकने के लिए लॉकडाउन जैसे कदम उठाने चाहिए। छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे राज्यों का यहां उदाहरण दिया जा सकता है, जहां पर संक्रमण दर बढ़कर 25-30 फीसदी तक हो गई है। रही बात टीकाकरण की, तो अगले 10 दिनों बाद बेशक इसमें एक नई ऊर्जा आएगी, लेकिन मौजूदा संकट का यह कोई तुरंत समाधान नहीं कर सकता। ऐसे में, भारतीय नेतृत्व के लिए यह वाकई कठिन परीक्षा की घड़ी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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