शंकर आचार्य
कोविड महामारी की भयावह दूसरी लहर ने देश भर के लोगों की जिंदगी, स्वास्थ्य एवं आजीविका को खतरे में डाला हुआ है। ऐसे में वर्तमान स्थिति बेहद परेशान करने वाली है। लिहाजा मुझे एक छोटी ऐतिहासिक आख्यान में उलझने की इजाजत दीजिए जिसका मुझे भी थोड़ा अनुभव रहा।
करीब 50 साल पहले हम मैसाच्युसेट्स के कैम्ब्रिज में रहा करते थे। मैं हार्वर्ड में अपनी पीएचडी के अंतिम वर्ष का छात्र था जबकि मेरी पत्नी पास की ही टफ्ट्स यूनिवर्सिटी में अपने शोधकार्य में लगी हुई थीं। जनवरी 1971 में हम इस्लामाबाद में कुछ हफ्ते बिताकर लौटे ही थे जहां मेरे पिता भारत के उच्चायुक्त के रूप में तैनात थे। इस तरह हमें पाकिस्तान के दोनों हिस्सों में घट रही घटनाओं के बारे में अच्छी जानकारी हासिल थी। दिसंबर 1970 के चुनाव नतीजे और जनरल याह्या खान की सैन्य सरकार एवं पूर्वी पाकिस्तान में लोकप्रिय अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान के बीच जारी तनातनी से भी हम बखूबी परिचित थे। उसी समय पश्चिमी पाकिस्तान में भी जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को खासा समर्थन मिल रहा था। इतिहास गवाही देता है कि न तो पाकिस्तान की सैन्य हुकूमत और न ही भुट्टो पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीब को मिली भारी जीत की बात मानने को तैयार थे। वे पूर्वी पाकिस्तान को अधिक स्वायत्तता देने तक को राजी न थे। दोनों पक्षों के बीच महीनों तक चली बातचीत के बेनतीजा रहने के बाद 25 मार्च,1971 को पाकिस्तानी सेना ने ढाका में बंगाली लोगों को निशाना बनाकर उनका सफाया शुरू कर दिया।
भले ही हम वहां से करीब 10,000 मील की दूरी पर थे लेकिन हम इस घटनाक्रम से बुरी तरह प्रभावित हुए थे। हार्वर्ड के छात्रों के अलावा वहां के शिक्षक भी इससे अछूते नहीं थे। मेरे शोध-प्रबंध सलाहकार एवं प्रोफेसर अमत्र्य सेन के मित्र प्रोफेसर स्टीफन मार्गलिन और मेरे अच्छे बंगाली दोस्त मोहिउद्दीन आलमगीर भी पूर्वी पाकिस्तान के घटनाक्रम से प्रभावित होने वाले लोगों में शामिल थे। प्रोफेसर मार्गलिन ने सुझाव दिया कि आलमगीर एवं मैं इस संकट की आर्थिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि पर जल्दी से एक संक्षिप्त ब्रीफिंग पत्र तैयार कर लें। खुद मार्गलिन इस पत्र के साथ अमेरिकी सरकार के लिए कुछ नीतिगत सुझाव देने वाले थे और फिर हार्वर्ड के कुछ सम्मानित विकास विद्वानों एवं नीति सलाहकारों के दस्तखत भी लेने थे।
आलमगीर और मैंने अपने सारे काम-धाम छोड़ दिए और अगले चार दिनों में दिन-रात मेहनत कर 10 पन्नों का एक ब्रीफिंग पत्र 'कॉन्फ्लिक्ट इन ईस्ट पाकिस्तान: बैकग्राउंड ऐंड प्रॉस्पेक्ट्स' तैयार कर लिया। इसमें पूर्वी पाकिस्तान की अधिक आबादी के साथ संघीय सरकार द्वारा अंजाम दिए जाने वाले आर्थिक एवं राजनीतिक भेदभाव के लंबे इतिहास का संक्षिप्त विवरण दर्ज था। पाकिस्तान की संघीय सरकार में हर स्तर पर पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं, अफसरों एवं सैन्य अधिकारियों का दबदबा हुआ करता था। ब्रीफिंग पत्र में हालिया सियासी घटनाओं का ब्योरा, पूर्वी बंगाल की राजनीतिक आकांक्षाओं को चुनाव के जरिये मिली वैधता और पाक सेना के हाथों जारी नरसंहार का भी उल्लेख था। इसमें साफ तौर पर कहा गया था, 'इस समय एक स्वतंत्र बांग्लादेश का उदय अपरिहार्य नजर आता है। सवाल बस यह रह गया है कि ऐसा होने के पहले कितना रक्तपात होगा?'
प्रोफेसर मार्गलिन ने एक स्वतंत्र बांग्लादेश के अंतरराष्ट्रीय निहितार्थों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी भी दर्ज की जिसमें कहा गया था कि इस नए देश का उदय अमेरिका के दीर्घकालिक हितों के अनुकूल ही होगा। उन्होंने पाकिस्तान सरकार को दी जाने वाली अमेरिकी सैन्य एवं आर्थिक मदद पर तत्काल रोक लगाने की भी मांग की थी।
उस ब्रीफिंग पत्र में मार्गलिन का कहीं बड़ा अंशदान हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के सम्मानित प्रोफेसरों के दस्तखत जुटाने का था, जो मैं और आलमगीर तो अपने दम पर नहीं ही कर पाते। प्रोफेसर एडवर्ड मैसन का उस पत्र पर दस्तखत जुटाना हमारे लिए एक बड़ी जीत थी। प्रोफेसर मैसन उस समय करीब 70 साल के हो चुके थे और हार्वर्ड एवं अमेरिकी सरकार दोनों जगह उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। हार्वर्ड में वह विकास एवं लोक प्रशासन प्रतिष्ठान के आधार स्तंभ माने जाते थे। वर्ष 1936 से ही हार्वर्ड से जुड़े रहे प्रोफेसर मैसन ग्रैजुएट स्कूल ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (बाद में केनेडी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट) के 11 साल तक डीन रह चुके थे। वह हार्वर्ड डेवलपमेंट एडवाइजरी सर्विस के संस्थापक भी थे जिसका नाम बाद में हार्वर्ड इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनैशनल डेवलपमेंट हो गया। एडवर्ड मैसन के नाम पर चलाए जाने वाले एक वर्षीय पाठ्यक्रम मास्टर्स इन पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में भारत के तमाम आईएएस अधिकारियों ने शिरकत की है। उनका पाकिस्तान के साथ सलाहकार के तौर पर लंबा जुड़ाव रहा था और उन्होंने पाकिस्तान की पहली पंचवर्षीय योजना का खाका भी तैयार किया था। अमेरिकी विकास नीतिगत जगत में उनकी विश्वसनीयता का कोई जोड़ नहीं था।
दस्तावेज पर दस्तखत करने वाले विद्वानों में प्रोफेसर रॉबर्ट डॉर्फमैन भी शामिल थे जो गणितीय अर्थशास्त्र की एक शाखा लिनियर प्रोग्रामिंग पर लिखित मशहूर पाठ्यपुस्तक के सह-लेखक थे। वह भी पाकिस्तान के साथ सलाहकार की भूमिका में लंबे समय तक काम कर चुके थे।
हार्वर्ड के तीनों ही प्रोफेसरों ने 1 अप्रैल 1971 को उस ब्रीफिंग पत्र पर हस्ताक्षर किए जिसके बाद उसे मैसन के एक कवर लेटर के साथ अमेरिकी सरकार एवं अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसियों के प्रमुखों के पास भेज दिया गया। विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक को भी वह पत्र भेजा गया था। कुछ हफ्ते बाद ही अमेरिकी संसद कांग्रेस के भीतर उस पत्र को पढ़ा गया। पूर्वी बंगाल में जारी नरसंहार और पाकिस्तान को अमेरिकी मदद पर रोक लगाने की मांग करते हुए एक सांसद ने वह पत्र सदन के पटल पर रखा। मुझे बताया गया है कि एक स्वतंत्र बांग्लादेश के गठन के लिए प्रयासरत लोगों ने भी उस ब्रीफिंग पत्र को खूब पसंद किया था। दिसंबर 1971 में भारतीय सेना और मुक्ति-वाहिनी के साझा प्रयासों से बांग्लादेश को आजादी मिलने के करीब साल भर बाद उस पत्र को भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा प्रकाशित बांग्लादेश डॉक्युमेंट्स में भी जगह दी गई थी। यहां पर यह कहना गैरजरूरी होगा कि आलमगीर एवं खुद मेरा नाम कहीं पर भी दर्ज नहीं है। और यह अच्छी बात ही है क्योंकि शोध सहायक के तौर पर भी अगर हमारे नामों का उल्लेख होता तो उससे पत्र का असर शायद कम हो जाता।निश्चित रूप से इसका थोड़ा भी असर रिचर्ड निक्सन एवं हेनरी किसिंजर पर नहीं पड़ा जो पाक की सैन्य सरकार को खुलकर समर्थन देते रहे और पाकिस्तानी खुफिया चैनलों के जरिये चीन तक पहुंचने की कोशिश में लगे रहे। भारतीय उप-महाद्वीप में अमेरिकी सरकार के इरादों को किसी लोकप्रिय धारणा ने नहीं बल्कि इंदिरा गांधी के फौलादी इरादों के आगे हार माननी पड़ी थी। आनन-फानन में संपन्न भारत-सोवियत मैत्री संधि, पूर्वी बंगालियों की जिद और भारतीय सेना के विलक्षण अभियान की वजह से बांग्लादेश एक स्वतंत्र देश बन गया और यूएसएस एंटरप्राइजेज की अगुआई वाला अमेरिकी सातवां बेड़ा कोई निर्णायक असर नहीं डाल पाया। एक युवा छात्र के तौर पर यह अच्छा ही था कि मैं भारतीय उप-महाद्वीप में घट रही बेहद अहम घटनाओं के नजदीकी संपर्क में रहा। किसिंजर के 'इंटरनैशनल बास्केट केस' (बांग्लादेश) की औसत आय अब पाकिस्तान से 40 फीसदी अधिक है और भारत के लगभग बराबर है।
(लेखक इक्रियर के मानद प्रोफेसर और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
0 comments:
Post a Comment