By आशुतोष चतुर्वेदी
कोरोना की दूसरी लहर चल पड़ी है और इसमें शिक्षा एक बार फिर प्रभावित हो गयी है. थोड़े समय पहले ही बड़ी कक्षाओं के लिए स्कूल खुले थे. वे एक बार फिर वे बंद हो गये हैं. केवल सीबीएसइ और राज्यों बोर्ड की कक्षा 10वीं और 12वीं की परीक्षाएं निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार चार मई से शुरू होंगी. हालांकि कोरोना संक्रमण को देखते हुए सोशल मीडिया पर बोर्ड परीक्षाओं को रद्द करने की मांग उठी थी, लेकिन बोर्ड ने स्पष्ट कर दिया है कि परीक्षाओं के कार्यक्रम में कोई बदलाव नहीं किया जायेगा.
पिछले साल कोरोना के विस्तार के साथ ही मार्च में स्कूलों को बंद कर दिया गया था. अधिकांश स्कूलों में पूरा सत्र नहीं हो पाया और अनेक स्कूलों, इंजीनियरिंग कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में फाइनल परीक्षाएं नहीं हो पायी थीं. यहां तक कि सीबीएसइ जैसा बोर्ड भी अपनी परीक्षाएं पूरी नहीं कर पाया था. उसके बाद से शिक्षा व्यवस्था पटरी से उतरी हुई है. कुछेक राज्यों में पिछले कुछ दिनों के दौरान स्कूल- कॉलेज खुले थे, लेकिन दूसरी लहर में वे भी बंद हो गये हैं. एक साल से अधिक से बच्चे घरों में कैद हैं.
इसके कारण उनके आचार-व्यवहार में भारी परिवर्तन आया है. वे दिनभर मोबाइल पर लगे रहते हैं. दोस्तों से कोई मेल-मुलाकात नहीं हो रही है. यही वजह है कि वे बेहद संवेदनशील हो गये हैं और अब उनके व्यवहार में क्षोभ नजर आने लगा है. झारखंड के हजारीबाग में कोरोना के मद्देनजर कोचिंग कक्षाओं को बंद करने को कहा गया, तो नाराज छात्र सड़कों पर उतर आये.
जब देशभर में लॉकडाउन लागू हुआ, तो उसके तुरंत बाद केंद्र और राज्य सरकारों ने स्कूली शिक्षा को ऑनलाइन करने का प्रावधान शुरू कर दिया था, पर हमारा शिक्षा जगत इस नयी चुनौती से निबटने के लिए तैयार नहीं था. ऑनलाइन शिक्षा के लिए न तो विशेष पाठ्यक्रम तैयार थे और न ही इस माध्यम से शिक्षा देने के लिए शिक्षक तैयार थे. यह तैयारी अब भी आधी-अधूरी नजर आती है. कुछेक शिक्षाविद इस ऑनलाइन शिक्षा को आपात रिमोट शिक्षा कह रहे हैं.
उनका कहना है कि ऑनलाइन शिक्षा और आपात ऑनलाइन रिमोट शिक्षा में अंतर है. ऑनलाइन शिक्षा एक अलग विधा है और पश्चिमी देशों में दशकों से इस माध्यम का इस्तेमाल किया जाता रहा है. इसका अलग पाठ्यक्रम होता है और इसके पठन-पाठन का तरीका भी अलग होता है. भारत में ऑनलाइन शिक्षा की उपलब्धता बहुत सीमित रही है.
स्कूली शिक्षा को तो छोड़ ही दें, जनवरी, 2020 तक देश के केवल सात उच्च शिक्षण संस्थान ऐसे थे, जिन्होंने यूजीसी के दिशा निर्देश के अनुसार ऑनलाइन पाठ्यक्रमों की अनुमति ली हुई थी. बाद में केंद्र सरकार ने देश के 100 शिक्षण संस्थानों को स्वत: ही ऑनलाइन शिक्षण की अनुमति दे दी. अब तो स्कूलों में भी ऑनलाइन शिक्षा का जोर है, पर न तो इसके लिए अलग से पाठ्यक्रम तैयार है और न ही शिक्षक-शिक्षिकाओं को तैयार किया गया है.
यह मान लिया गया है कि कक्षाओं का विकल्प ऑनलाइन शिक्षा है, पर इसमें ढेरों चुनौतियां हैं. इस बात का भी कोई आकलन नहीं है कि यह शिक्षा कितनी प्रभावी है. टीवी के माध्यम से भी शिक्षा का प्रयोग भारत में काफी समय से चल रहा है. दूरदर्शन पर पहले भी ज्ञान दर्शन जैसे कार्यक्रम आया करते थे, पर वे बहुत सफल नहीं रहे. टीवी से पढ़ाई की अपनी दिक्कतें हैं. एक तो हर घर में टीवी सेट की उपलब्धता, निरंतर बिजली की आपूर्ति और टीवी के सामने बच्चों को ये बिठाये रखने और घर का माहौल जैसी जरूरतें इस माध्यम के समक्ष चुनौती है.
कुछ समय पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जब आर्थिक पैकेज की घोषणा की थी, तो उसमें डिजिटल पढ़ाई को बढ़ावा देने के लिए पीएम ई-विद्या कार्यक्रम का भी एलान किया गया था. इसके तहत ई-पाठ्यक्रम, शैक्षणिक चैनल और सामुदायिक रेडियो का इस्तेमाल करके बच्चों तक पाठ्य सामग्री पहुंचाने की बात कही गयी थी. यह भी घोषणा की गयी है कि पहली से लेकर 12वीं तक की कक्षाओं के लिए एक-एक डीटीएच चैनल शुरू किया जायेगा.
हर कक्षा के लिए छह घंटे का ई-कंटेंट तैयार किया जायेगा और इसे छात्रों तक पहुंचाने के लिए रेडियो, सामुदायिक रेडियो और पॉडकास्ट सेवाओं का भी इस्तेमाल किया जायेगा. सरकार की घोषणाओं में विभिन्न माध्यमों से ऑनलाइन पढ़ाई पर जोर दिया गया है, लेकिन जहां इंटरनेट, टीवी और निरंतर बिजली उपलब्ध न हो, वहां कैसे बच्चे इन सुविधाओं का कैसे लाभ उठा पायेंगे. इन दिनों वर्चुअल क्लासरूम की खूब चर्चा हो रही है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में एक बड़े तबके के पास न तो स्मार्ट फोन है, न कंप्यूटर और न ही इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है.
देश के प्राइवेट और सरकारी स्कूलों की सुविधाओं में भी भारी अंतर है. प्राइवेट स्कूल मोटी फीस वसूलते हैं और उनके पास संसाधनों की कमी नहीं है. वे तो वर्चुअल क्लास की सुविधा जुटा लेंगे, लेकिन सरकारी स्कूल तो अभी तक बुनियादी सुविधाओं को जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वे कैसे ऑनलाइन क्लास की सुविधा जुटा पायेंगे. गरीब तबके पर अपने बच्चों को ये सुविधाएं उपलब्ध कराने का दबाव बढ़ गया है.
यह तबका इस मामले में पहले से ही पिछड़ा हुआ था, कोरोना ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है. यही वजह है कि अब गरीब तबका भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना नहीं चाहता है. सरकारी संस्था डीआइएसइ आंकड़ों के अनुसार 2011 से 2018 तक लगभग 2.4 करोड़ स्कूली बच्चों ने सरकारी स्कूल छोड़ कर निजी स्कूलों में दाखिला लिया है. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़ों पर भी गौर करना जरूरी है.
इसके अनुसार, केवल 23.8 फीसदी भारतीय घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है. इसमें ग्रामीण इलाके भारी पीछे हैं. शहरी घरों में यह उपलब्धता 42 फीसदी है, जबकि ग्रामीण घरों में यह 14.9 फीसदी ही है. केवल आठ फीसदी घर ऐसे हैं, जहां कंप्यूटर और इंटरनेट दोनों की सुविधाएं उपलब्ध है. पूरे देश में मोबाइल की उपलब्धता 78 फीसदी आंकी गयी है, लेकिन इसमें भी शहरी और ग्रामीण इलाकों में भारी अंतर है.
ग्रामीण क्षेत्रों में 57 फीसदी लोगों के पास ही मोबाइल है. यह सही है कि देश में इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. सांख्यिकी वेबसाइट स्टेटिस्टा के अनुसार ऐसा अनुमान है कि 2025 तक देश में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़ कर 90 करोड़ तक जा पहुंचेगी, लेकिन एक बड़ी कमी यह है कि ग्रामीण और शहरों इलाकों में इस्तेमाल करने वालों के बीच संख्या में बड़ा अंतर है.
एक बड़ी समस्या कनेक्टिविटी और कॉल ड्राॅप की है. आप बिहार, झारखंड के विभिन्न शहरों में किसी को फोन मिलाने की कोशिश करें, तो कई बार कनेक्टिविटी की समस्या से आपको दो-चार होना पड़ सकता है. साथ ही इंटरनेट की स्पीड भी एक बड़ी समस्या है. जब बैंक से लेकर पढ़ाई तक सारा कामकाज इंटरनेट के माध्यम से होना है, तो जाहिर है कि सबको तेज गति का इंटरनेट चाहिए और निर्बाध चाहिए. इसका भी समाधान निकालने की जरूरत है.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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