By अजीत रानाडे
मुख्य नीतिगत ब्याज दर को लेकर हर दूसरे महीने रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति की बैठक होती है. इसी दर के आधार पर रिजर्व बैंक किसी व्यावसायिक बैंक को एक दिन का कर्ज देता है, जिसे तत्काल नगदी की दरकार होती है. यह कर्ज बैंक के मालिकाना वाले सरकारी बॉन्ड या प्रतिभूति के एवज में दिया जाता है. इस एक-दिवसीय लेन-देन को रेपो लेन-देन कहा जाता है, क्योंकि इसमें लेनदार पर ‘दुबारा खरीद’ की जिम्मेदारी होती है.
इस दर को रेपो दर कहा जाता है. यह दर जितनी कम होती है, कर्ज लेना उतना ही आसान होता है, यदि बैंक के पास समुचित गिरवी रखने की क्षमता है. अगर बैंकों को ग्राहकों की ओर से कर्ज की भारी मांग है और उसके पास नगदी कम है, तो वे ऐसे कर्ज बड़ी मात्रा में ले सकते हैं. केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक के समझौते के तहत समिति को इस तरह दर निर्धारण का निर्देश है कि मुद्रास्फीति दो से छह फीसदी के बीच रहे.
यदि मौद्रिक नीति समिति इस निर्देश के पालन से चूक जाए, तो क्या होगा? समझौते में कहा गया है कि यदि लगातार तीन तिमाहियों तक मुद्रास्फीति की दर तय सीमा से अधिक रहती है, तो समिति को सरकार के सामने इसका कारण स्पष्ट करना पड़ेगा. यह स्पष्टीकरण लिखित रूप में या सरकारी पैनल के सामने पेश होकर या ऐसे ही अन्य तरीकों से दिया जा सकता है, लेकिन इस नियमन को कभी व्यवहार में नहीं लाया गया है, तब भी नहीं, जब बीते साल लगभग बारह माह तक मुद्रास्फीति की दर छह फीसदी से अधिक बनी रही थी.
ऐसा मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों की कीमतों के बढ़ने और चर्चित महंगी प्याज समेत सब्जियों व फलों के दाम में मौसमी बढ़त की वजह से हुआ था. संभव है कि यदि समिति को उसकी विफलता स्पष्ट करने के लिए कहा जाए, तो वह अपने को असहाय बतायेगी, क्योंकि वह कह सकती है कि किसी अन्य कारण से अधिक सरकारी कार्यवाहियों की वजह से मुद्रास्फीति बढ़ रही है.
उदाहरण के लिए, पेट्रोल व डीजल पर बहुत अधिक शुल्क लगाने से इनकी कीमतें बढ़ी हैं और इससे यातायात खर्च और इसके कारण बाकी सभी चीजों में मुद्रास्फीति बढ़ी है. स्पष्ट रूप से ये वित्तीय कार्यवाहियां हैं, जिनके बारे में मौद्रिक नीति कुछ नहीं कर सकती है. कई विशेषज्ञों का मानना है कि मुद्रास्फीति रेपो दर से कहीं बहुत अधिक वित्तीय विस्तारवाद और घाटे से प्रभावित होती है.
जो भी हो, चार फीसदी का मौजूदा रेपो रेट ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर है. असल में, कुछ मौकों को छोड़कर, मुद्रास्फीति के डर के बावजूद बीते तीन साल में ब्याज दर घटाने का रिजर्व बैंक का लंबा रिकॉर्ड रहा है.
यह चर्चा भी होती है कि क्या समिति को ज्यादा दायरा दिया जाए, ताकि मुद्रास्फीति की बड़ी दर को बर्दाश्त किया जा सके और कम ब्याज दरें अधिक समय तक लागू रह सकें. पश्चिमी दुनिया में, जापान में भी, लगभग बारह सालों से ब्याज दरें शून्य के आसपास हैं, तो फिर भारत को क्यों चिंतित होना चाहिए?
हम औसतन चार फीसदी की जगह छह या सात फीसदी मुद्रास्फीति के साथ क्यों नहीं रह सकते? क्या मुद्रास्फीति उत्पादकों के लिए लाभप्रद नहीं है, जिन्हें मुनाफे के रूप में अधिक उत्पादन का प्रोत्साहन मिलता है? यह अच्छी बात है कि ऐसी बहसों पर रिजर्व बैंक ने ही विराम लगा दिया है, जिसने एक शोध पत्र के जरिये दुहराया है कि चार फीसदी के मध्यमान के साथ दो से छह फीसदी की सीमा भारत के लिए बिल्कुल सही है.
इससे स्पष्ट है कि मौद्रिक नीति समिति अर्थव्यवस्था में क्रेडिट और कर्ज में बढ़त को प्रोत्साहित करने के लिए निम्न रेपो रेट की पक्षधर है. इस प्रकार, महामारी के प्रारंभ से ही, उससे पहले से भी, रिजर्व बैंक का मुख्य जोर आर्थिक वृद्धि को गति देने पर रहा है.
ब्याज दर तय करने के अलावा भी इसने संभावित लेनदारों को बैंकिंग प्रणाली के जरिये सस्ते कर्ज मुहैया कराने के लिए कई और कोशिशें की हैं. इसने कर्ज चुकाने की मोहलत बढ़ाने के साथ दीर्घावधि रेपो ऑपरेशन भी घोषित किया है, जिसके तहत कम दरों पर तीन साल के लिए कर्ज लिये जा सकते हैं. इन उपायों के बावजूद क्रेडिट वृद्धि बहुत संकुचित रही है.
इस वित्त वर्ष में रिजर्व बैंक के सामने सबसे बड़ी चुनौती सबसे बड़े लेनदार- भारत सरकार- की कर्ज जरूरतों को पूरा करने की है. सरकार को बारह लाख करोड़ रुपये की दरकार है. इसके अलावा राज्य सरकारों के लिए भी लगभग 10 लाख करोड़ रुपये चाहिए. निजी क्षेत्र की यह जरूरत ठोस रूप से नहीं बढ़ रही है, पर यदि उसमें बढ़त होती है, तो उससे भी दबाव बढ़ेगा. बैंकिंग तंत्र में कर्ज के रूप में देय राशि की आपूर्ति जमाकर्ताओं द्वारा होती है.
आशावादी अनुमानों को ध्यान में रखते हुए भी इस साल जमा वृद्धि लगभग पंद्रह लाख करोड़ रुपये से अधिक नहीं होगी. ऐसे में कर्ज के लिए कम राशि उपलब्ध होगी, जिससे ब्याज दरें बढ़ सकती हैं. सरकार या रिजर्व बैंक ऐसा बिल्कुल नहीं चाहते. इससे सरकार पर बोझ बढ़ जायेगा.
चूंकि रिजर्व बैंक के पास रुपया छाप कर बेहद सस्ती दर पर सरकार को देने का विकल्प नहीं है (यह कानून द्वारा वर्जित है), तो इसने एक परोक्ष उपाय निकाला है. इसे पश्चिम के केंद्रीय बैंकों द्वारा ‘क्वांटिटेटिव ईजिंग' कहा जाता है. मौद्रिक नीति समिति की हालिया बैठक के बाद रिजर्व बैंक ने कहा है कि वह पहली तिमाही में एक लाख करोड़ रुपये मूल्य के सरकारी बॉन्ड खरीदेगा (वह पूरे साल भी ऐसा कर सकता है).
इसका अर्थ यह है कि कम दरों पर बतौर कर्ज देने के लिए अतिरिक्त चार लाख करोड़ रुपये उपलब्ध होंगे. यह कदम बिल्कुल ही रूढ़िवादी नहीं है और रिजर्व बैंक के लिए यह ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघने का साहसभरा कार्य है.
पहले हमने संकेत किया था कि रिजर्व बैंक और सरकार के बीच शेयरों के बदले सीधे कर्ज लेने का विकल्प है, जिसमें सार्वजनिक उपक्रमों के शेयर गिरवी रखे जा सकते हैं. यह कदम उसी दिशा में उठाया गया है. सरकार बारह लाख के अपने बहुत बड़े घाटे को पूरा करने के लिए उधार लेने जा रही है, तो वह बॉन्ड बेचेगी, जिसे रिजर्व बैंक द्वितीयक बाजार से खरीदेगा. इस तरह समुचित कर्ज भी उपलब्ध होगा और ब्याज दरें भी कम रहेंगी. इससे मुद्रास्फीति पर क्या असर होगा, यह तो समय ही बतायेगा.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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