कोरोनावायरस के समय में समुचित नीति निर्माण (बिजनेस स्टैंडर्ड)

देवांशु दत्ता 

कोविड-19 महामारी के कारण अब तक दुनिया में 30 लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। इसने दुनिया की अर्थव्यवस्था को भी लगभग तबाह ही कर दिया है। यह सही है कि अब दुनिया भर में टीकाकरण शुरू हो चुका है लेकिन संकट है कि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा है। निश्चित तौर पर कोरोनावायरस के बदले हुए स्वरूप की यह लहर और कहीं अधिक खतरनाक हो सकती है।

अलग-अलग देशों ने इस चुनौती से निपटने के लिए अलग-अलग रणनीति अपनाई है। ऐसे में यह देखना उचित होगा कि वे कौन से देश हैं जो महामारी से बेहतर तरीके से निपटने मेंं कामयाब रहे, कहां मौत के आंकड़े कम रखनेे में सफलता मिली, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई गईं और आर्थिक नुकसान कम करने में कामयाबी हाथ लगी? विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से इसे महामारी करार देने के एक वर्ष बाद हम इसका उदाहरण हैं। यह केवल अकादमिक बहस नहीं है: नीति निर्माताओं को मौजूदा हालात से निपटना होगा और उन्हें सन 2020 की सफलताओं और विफलताओं से सबक लेने की आवश्यकता है।


अपेक्षाकृत कम मौतों और बेहतर आर्थिक स्थिरता के साथ जर्मनी, न्यूजीलैंड, जापान, वियतनाम, ताइवान और दक्षिण कोरिया सन 2020 से अपेक्षाकृत बेहतर तरीके से निपटने में कामयाब रहे। जबकि अमेरिका, ब्राजील, इटली, ब्रिटेन और रूस में मौत के आंकड़े भी अधिक रहे और आर्थिक संकट भी अन्य देशों की तुलना में अधिक रहा। मौत के मामलों में भारत का प्रदर्शन बहुत खराब नहीं कहा जा सकता है। परंतु आर्थिक नुकसान के मामले में हम सबसे खराब प्रदर्शन वाले देशोंं में शुमार हैं। चीन में मौत तथा संक्रमितों के आंकड़ों के बारे में जान पाना कठिन है लेकिन वह अपने यहां आर्थिक गतिविधियों को ठीक रख पाने मेंकामयाब रहा है।


पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के व्हार्टन स्कूल के समाजशास्त्री माउरो गुइलेन ने एक पर्चा लिखा है, द पॉलिटिक्स ऑफ पैनडेमिक्स: डेमोक्रेसी, स्टेट कैपिसिटी ऐंड इकनॉमिक इनेक्विलिटी । इसमें 146 देशों में सन 1990 के बाद से संक्रामक रोगों और उनके प्रबंधन पर नजर डाली गई है।  


उन्होंने इन विषयों पर तीन अध्ययन किए। पहले में सन 1990 और 2019 के बीच संक्रामक रोगों की आवृत्ति और इनके घातक होने का अध्ययन किया गया है। दूसरे में कोविड-19 के दौरान सरकारों की ओर से लगाए गए लॉकडाउन की गति और उसकी गंभीरता का अध्ययन है। तीसरा अध्ययन शारीरिक  दूरी के मानकों के अनुपालन पर आधारित है।


गुइलेन कहते हैं, 'लोकतांत्रिक देशों में, गहरी पारदर्शिता, जवाबदेही और जनता के विश्वास ने ऐसे रोगों की आवृत्ति और उनके घातक असर को सीमित किया है, इन्हें लेकर दी जाने वाली प्रतिक्रिया मेंं समय कम लगा है और सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े उपायों को लेकर लोगों में अनुपालन की प्रवृत्ति बढ़ी है।'


खेद की बात यह है कि सालाना वैश्विक लोकतांत्रिक सूचकांक यह संकेत दे रहा है कि लोकतंत्र के स्तर मेंं गिरावट आ रही है। इससे अविश्वास का माहौल उत्पन्न हुआ है। इसका अर्थ यह है कि लोग शारीरिक दूरी का पालन करने, मास्क पहनने और टीका लगवाने से इनकार कर रहे हैं।


एक अधिक दिलचस्प नतीजा यह है कि सरकार के स्वरूपों से ज्यादा आर्थिक असमानता ने ऐसी बीमारियों के प्रभाव को बढ़ाया है और क्वारंटीन, शारीरिक दूरी आदि के व्यापक अनुपालन पर भी असर डाला है। कम आय वाले लोगों के लिए काम करना मजबूरी है। उन्हें मामूली लक्षणों की अनदेखी करना और जांच से बचना आसान लगता है क्योंकि वे काम नहीं छोड़ सकते। इतना ही नहीं कम आय का संबंध कमजोर पोषण, स्वास्थ्य सेवाओं तक अपर्याप्त पहुंच और भीड़भाड़ वाले इलाकों में बिना साफ सफाई के रहने से भी है।


मजबूत सरकारी क्षमता और अच्छी नीति हमें खराब नतीजों से बचा सकती है और आय की असमानता में इजाफा भी रोक सकती है।


गुइलेन का मानना है कि लोकतांत्रिक और अधिनायकवादी दोनों तरह के शासन जरूरी संसाधन और क्षमता के साथ-साथ आवश्यक संगठनात्मक ढांचा तैयार कर सकते हैं। कुछ भी हो, लोकतांत्रिक व्यवस्था हो अथवा नहीं लेकिन अगर असमानता अधिक हो तो परिणाम भी बुरे होते हैं।


यह दलील मजबूत नजर आती है। अमेरिका, भारत और ब्राजील तीनों में असमानता का स्तर बहुत अधिक है। भारत के मामले में दुखद बात यह है कि लॉकडाउन के कारण आय का अंतर काफी बढ़ गया क्योंकि लाखों लोगों को रोजगार गंवाना पड़ा।


अमेरिका इस मामले में खुशकिस्मत है क्योंकि वहां सत्ता परिवर्तन हो गया। इससे वहां अधिक बेहतर नीति लागू हुई। अमेरिका में राष्ट्रपति जो बाइडन के नेतृत्व वाले नए सत्ता प्रतिष्ठान ने एक प्रभावशाली टीकाकरण कार्यक्रम की शुरुआत की और प्रोत्साहन के चेकों के माध्यम से राहत में इजाफा किया।


भारत में इस बात के प्रमाण हैं कि केंद्र सरकार ने टीकाकरण की प्रक्रिया को भी सहज तरीके से नहीं शुरू किया। अब राज्यों में टीकों की कमी हो गई है और केंद्र, राज्यों पर दोषारोपण कर रहा है। विभिन्न चरणों में चुनाव के आयोजन और असमय कुंभ मेले के लिए भी राजनीतिक कारण ही जिम्मेदार हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि इनके कारण संक्रमण में बेतहाशा वृद्धि होना तय है।


आर्थिक मोर्चे पर मांग में जो भी सुधार हुआ है वह ईंधन पर भारी भरकम कर और सख्त वस्तु एवं सेवा कर व्यवस्था के बावजूद हुआ है। सन 2020 में लगाए गए लॉकडाउन ने आर्थिक गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित किया था और अगर दोबारा लॉकडाउन लगता है कि निम्र आय वर्ग वाले लोग मजबूर हो जाएंगे कि वे या तो भूखों मरें या फिर कानून तोड़ें और संक्रमण का खतरा बढ़ाएं। यह देखा जाना है कि क्या यह सरकार टीकाकरण में सुधार कर एक बेहतर प्रोत्साहन योजना पेश कर पाती है या नहीं।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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