सन 2015 में हुए राफेल लड़ाकू विमान सौदे को लेकर नये सिरे से विवाद उत्पन्न हो गया है और सरकार को इस पर तत्काल विस्तार से अपनी बात रखने की जरूरत है। इस बार खुलासा फ्रांस की एक भ्रष्टाचार-निरोधक एजेंसी ने किया है। एजेंसी का दावा है कि दोनों देशों की सरकारों के बीच हुए इस सौदे में एक भारतीय बिचौलिये को 508,925 यूरो की राशि बतौर कमीशन प्रदान की गई। राफेल की निर्माता कंपनी दसॉ ने डेफसिस सॉल्युशंस के सुषेण गुप्ता को यह राशि चुकाई और इसका उल्लेख 'क्लाइंट को तोहफा' के रूप में किया। गुप्ता अगस्टावेस्टलैंड हेलीकॉप्टर खरीद सौदे में धनशोधन की जांच के दायरे में हैं। दसॉ के मुताबिक यह राशि गुप्ता से संबंधित भारतीय कंपनी द्वारा राफेल की 50 अनुकृतियां तैयार करने की एवज में किया गया आंशिक भुगतान थी। ऐसी कुछ अनुकृतियां वायु सेना प्रमुख के आवास के बाहर प्रदर्शित हैं लेकिन इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि उन्हें गुप्ता की कंपनी ने बनाया है। गुप्ता ने इन आरोपों को नकारा है। फ्रांसीसी कंपनी ने इन्हें भारतीय प्रवर्तन निदेशालय की गुप्ता से जुड़ी केस फाइल से हासिल किया जिसमें दावा किया गया है कि उन्होंने रक्षा मंत्रालय से अवैध तरीके से गोपनीय दस्तावेज हासिल किए ताकि बेहतर सौदेबाजी में फ्रांसीसी पक्ष की मदद की जा सके।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सरकार जो आमतौर पर स्वयं को आदर्श और ईमानदार बताती है, उसने इस विषय पर कोई विस्तृत स्पष्टीकरण तक नहीं दिया और न ही जांच का आदेश दिया। अब तक सरकार की इकलौती प्रतिक्रिया केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की ओर से तंज के रूप में सामने आई जिसमें उन्होंने अगस्टावेस्टलैंड सौदे में कांग्रेस के कथित रूप से शामिल होने की ओर इशारा किया। सरकार 2017 से ही इस सौदे को लेकर उठे सवालों पर किसी तरह की सफाई देने की अनिच्छुक दिखी है। सन 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने मोदी सरकार और फ्रांस सरकार के बीच 36 विमानों के सौदे की न्यायालय की निगरानी में जांच की मांग करने वाली कई जनहित याचिकाओं को ठुकरा दिया था। अपने निर्णय में उसने कहा था कि उसे उन प्रमाणों में कोई अनियमितता नहीं मिली है जो सरकार ने सीलबंद लिफाफे में उसके समक्ष पेश किए। यकीनन संविधान के रक्षक देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्याय का यह अनूठा तरीका था।
सन 2019 में उसने समीक्षा याचिका से संबंधित एक जनहित याचिका खारिज कर दी। यह याचिका तब दायर की गई थी जब मीडिया में खबर आई थी कि भारत की ओर से बातचीत करने वाली टीम के दो विषय विशेषज्ञों ने सौदे के अहम पहलुओं पर सवाल उठाए थे। तब सरकार ने कहा था कि लीक हुए दस्तावेज गोपनीय थे। न्यायालय ने वाद खारिज कर दिया था। परंतु समीक्षा याचिका खारिज करते हुए कहा गया कि वह अपने अनुच्छेद 32 के अधिकारों के तहत रक्षा अनुबंधों की सीमित निगरानी कर सकता है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने भी सौदे को साफ-सुथरा बताया। उसकी रिपोर्ट में कहा गया है कि यह सौदा संप्रग सरकार द्वारा किए गए 126 विमानों के सौदे से 2.87 फीसदी सस्ता था। हालांकि सरकार का दावा 9 से 20 फीसदी सस्ता सौदा करने का था। ध्यान रहे संप्रग के सौदे को मोदी सरकार ने रद्द किया था। परंतु रक्षा मंत्रालय के कहने पर सीएजी की रिपोर्ट में कीमतों का उल्लेख नहीं किया गया। कहा गया कि यह सौदे की गोपनीयता की शर्त के चलते किया गया। ऐसे वक्त में जब सरकार की जांच एजेंसियां ममता बनर्जी और महाराष्ट्र में महाविकास आघाडी को लगातार जांच के दायरे में ले रही हैं तब सरकार राफेल सौदे पर कुछ भी कहने से बच रही है। यह बात अपने आप में बहुत कुछ कहती है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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