प्रेमवीर दास
हाल ही में अमेरिका का गाइडेड मिसाइल डिस्ट्रॉयर, यूएसएस जॉन पॉल जोंस, लक्षद्वीप क्षेत्र में भारतीय विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) से होकर गुजरा। यह पोत फारस की खाड़ी से मलक्का जलडमरुमध्य की ओर जा रहा था लेकिन इस जिस सातवें बेड़े का यह हिस्सा था उसने इसे फ्रीडम ऑफ नेविगेशन ऑपरेशन (एफओएओपीएस) का नाम दिया। ऐसा लगता नहीं कि बेड़े का मुख्यालय बिना उच्चाधिकारियों की इजाजत के ऐसी घोषणा करेगा।
भारत सरकार ने औपचारिक आपत्ति जताते हुए कहा कि इसकी पूर्व अनुमति नहीं ली गई थी। अमेरिकी सरकार की ओर से इस पर बड़ी संक्षिप्त और रूखी प्रतिक्रिया आई। कहा गया कि उसका जहाज 'अंतरराष्ट्रीय जल सीमा' से गुजर रहा था जहां उसे आवागमन का पूरा अधिकार है। यह देखना दिलचस्प है कि आखिर अमेरिका ने ऐसा व्यवहार क्यों किया और हमारी प्रतिक्रिया ऐसी क्यों रही?
अधिकारों की बात करें तो समुद्री तटवाले हर देश को समुद्र में एक निश्चित सीमा तक अधिकार होता है। यह सीमा तट से 12 मील तक होती है। इसके बाद ईईजेड का क्षेत्र शुरू होता है जो तटीय इलाके से 200 मील तक होता है। यह वह इलाका है जहां समुद्र के नीचे आर्थिक खनन के तमाम अधिकार उस देश को हासिल होते हैं। परंतु आवागमन के मामले में यह क्षेत्र ईईजेड का हिस्सा होता है जो अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र होता है और जहां सभी देशों के पोत अबाध भ्रमण कर सकते हैं। उन्हें इसके लिए तटीय इलाके की इजाजत की आवश्यकता नहीं होती। इस मामले में पूर्व सूचना देना भी बस शिष्टाचार का हिस्सा है। इस बात का संयुक्त राष्ट्र के समुद्री कानूनों (यूएनसीएलओएस) 1982 में समुचित उल्लेख है। हमने इस पर हस्ताक्षर किए हैं लेकिन अमेरिका ने नहीं। हालांकि यह व्यवस्था जरूर है कि ईईजेड से पोत के गुजरते समय समुचित सूचना दी जाएगी। अन्य देशों ने अपने स्तर पर संशोधन किए हैं लेकिन उनकी प्रासंगिकता इस बात पर निर्भर है कि उनका कितना पालन होता है।
यह पहला मौका नहीं है जब कोई विदेशी युद्घपोत बिना हमें सूचना दिए या मंजूरी लिए ईईजेड से गुजरा है। यहां मसला यह नहीं है कि अमेरिकी विध्वंसक ने यह रास्ता चुना, बल्कि मुद्दा है अमेरिकी उच्चाधिकारियों का इस पर प्रतिक्रिया देने का रुखा अंदाज।
ऐसी भी घटनाएं घटी हैं जब अमेरिकी विमानवाहक पोतों और परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बियों वाले कार्य बल ने हमारे ईईजेड में अभ्यास किया है। लेकिन वह शीतयुद्घ का दौर था जब दोनों देशों के रिश्ते तनावपूर्ण थे। उदाहरण के लिए सन 1982 में अमेरिकी विमानवाहक पोत यूएसएस जॉन एफ केनेडी के नेतृत्व में एक कार्यबल ने दीव से 100 मील दूर अभ्यास किया था और भारतीय नौसैनिक विमानों ने उसकी निगरानी की थी। परंतु इस तथाकथित एफओएनओपीएस का मामला तब हुआ है जब दोनों देश हिंद-प्रशांत क्षेत्र में करीबी सामरिक साझेदार हैं। ऐसे में चर्चा करना उचित है।
पहली बात, हमारी समुद्री सैन्य शक्ति की सराहना करनी होगी कि उसने ईईजेड की समुचित निगरानी बरकरार रखी। यही वजह थी कि अमेरिकी युद्घपोत का पता लगाया जा सका। कुछ समय पहले नौसेना प्रमुख ने कहा था कि मलक्का जलडमरूमध्य के जरिये हिंद महासागर क्षेत्र में आने और जाने वाले हर चीनी युद्घपोत पर नजर रखी जा रही थी। इस हालिया घटना से उनके दावे की पुष्टि होती है।
उपग्रह के जरिये टोह लेकर या विमानों की मदद से हम अपने क्षेत्र में पोतों के आवागमन की निगरानी कर पा रहे हैं। इस क्षमता में वृद्घि करना एकदम आवश्यक है। इसके साथ ही हमें यह क्षमता भी विकसित करनी होगी कि ऐसी घुसपैठ का पता लगने पर कूटनीतिक कदम उठाने के अलावा अन्य तरह से भी प्रतिक्रिया दी जा सके। अतीत में हमारे पोतों ने घुसपैठ करने वाले जहाजों को न केवल रोका बल्कि हमारे ईईजेड से बाहर भी निकाला। इस समुद्रीय शक्ति को हासिल करना हमारे सैन्य शक्ति बनने की अनिवार्य शर्त है। इसमें विमानवाहक पोतों की अहम भूमिका है। फिलहाल ऐसे कम से कम तीन पोतों की आवश्यकता है। आशा करनी चाहिए कि भारतीय नौसेना और सरकार इससे अवगत होंगे।
इस घटना का दूसरा पहलू एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश हो सकती है। भारत को शायद एकदम निचले स्तर से संदेश देने की कोशिश की गई ताकि किसी देश को नुकसान भी न पहुंचे। इसके बावजूद अमेरिका ने सुर्खी बना दिया और भारत में इसे लेकर नकारात्मक प्रतिक्रिया सामने आई। यह अनुमान से परे नहीं रहा होगा। भारतीय प्रतिक्रिया का अनुमान तो था लेकिन संभावित लाभ कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थे।
यह सवाल पूछा जा सकता है कि इसकी वजह क्या हो सकती है? एक, शायद चीन को यह संदेश देने की कोशिश की गई कि अमेरिका केवल उसके इलाके में ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी एफओएनओपीएस के जरिये ऐसा कर सकता है। उसने जताया कि वह भारत जैसे देश के साथ भी ऐसा कर सकता है जो मित्र राष्ट्र हैं। ऐसे में चीन की खुशी बिना वजह नहीं है। रूसी विदेश मंत्री की हालिया भारत यात्रा और एस 400 एएमडी सिस्टम को लेकर दिया गया संकेत भी वजह हो सकता है।
अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि उक्त सिस्टम की आपूर्ति शुरू होने पर कहीं अमेरिका भारत पर किसी तरह के प्रतिबंध न लगा दे। एक और वजह यह जताना हो सकती है कि क्वाड जैसे समूह अपनी जगह हैं लेकिन ऐसे किसी गठजोड़ में अमेरिका की शीर्ष भूमिका को भूलना नहीं चाहिए। इन सवालों के जवाब सामने आने में अभी कुछ वक्त लगेगा।
लब्बोलुआब यह है कि अपने युद्घपोत को भारतीय ईईजेड से गुजारना अमेरिका का एक सुविचारित कदम था और उसने ऐसा करने के पहले तमाम पहलुओं पर विचार किया होगा। यह कोई अचानक घटी हुई घटना नहीं है। हमें इसका सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना होगा। समुद्र में नौसैनिक बलों की गतिविधियां केवल असावधानी नहीं होतीं। उनके द्वारा दिए गए संदेश को समझना महत्त्वपूर्ण है।
(लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य रह चुके हैं।)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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