टीसीए श्रीनिवास-राघवन
पत्रकारों और खिलाडिय़ों से अक्सर कहा जाता है कि वे उतने ही अच्छे हैं जितना अच्छा उनका प्रदर्शन है। यह बात अर्थशास्त्री, केंद्रीय बैंकर और आर्थिक प्रशासक एम नरसिम्हन पर भी लागू होती है। उनका गत 20 अप्रैल को निधन हो गया। वह 94 वर्ष के थे।
उनके निधन के बाद से अब तक उनके बारे में जो कुछ लिखा गया उसमें अधिकांश बातें उनकी अध्यक्षता वाली बैंकिंग सुधार समितियों की दो रिपोर्ट पर केंद्रित हैं। पहली रिपोर्ट 1994 में आई थी जबकि दूसरी 1999 में।
मुझे इस बात में संदेह है कि उन्होंने अपनी समिति के प्रयासों को सफल माना भी होगा। उनकी समितियां जिस तरह के बैंकिंग सुधार चाहती थीं वे कभी नहीं हो पाए। उनका जमकर राजनीतिक विरोध हुआ। शायद उन विचारों को अपनाने का वक्त अब आया है।
उन अनुशंसाओं में से एक में यह सबक भी छिपा हुआ है कि देश में अहम निर्णय किस प्रकार लिए जाते हैं। इसका संबंध सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी के स्तर से है।
डॉ. वाई वी रेड्डी ने एक बार उनसे पूछा था कि वह इस नतीजे पर कैसे पहुंचे कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी 33 फीसदी होनी चाहिए। नरसिम्हन ने जवाब दिया कि उन्होंने 33 फीसदी का आंकड़ा 51 और 26 के तुलनात्मक अध्ययन से निकाला। समिति के अत्यधिक सतर्क सदस्य 51 फीसदी हिस्सेदारी चाहते थे जबकि अत्यधिक उदार सदस्यों की दृष्टि में यह 26 फीसदी होना चाहिए था।
यह किस्सा मुझे सन 1995 में आई फिल्म द गैंबलर में गोविंदा पर फिल्माए गए और देवांग पटेल के गाए गीत की याद आई। 'मेरी मर्जी' बोल वाले इस गीत में अपनी मर्जी चलाने वाले रुख को बहुत अच्छी तरह समेटा गया है। सन 1947 में भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन की रेखा खींचने वाले सीरिल रेडक्लिफ भी सहमति में सर हिलाते।
शुरुआती दौर में नरसिम्हन
मजाक से इतर कुछ ही लोग होंगे जिन्हें पता होगा कि देश के बैंकिंग क्षेत्र पर नरसिम्हन की छाया कितनी घनी और विशाल है। लगभग हर बड़े निर्णय को प्रभावित करने में उनकी भूमिका रही।
सन 1960 के दशक के आरंभ में जब आरबीआई और सरकार बैंकों के साथ जमा बढ़ाने के इच्छुक नहीं दिख रहे थे तो इसकी एक अहम वजह यह थी कि लोग अपना पैसा एलआईसी तथा ऐसे अन्य सरकारी संस्थानों में लगाते थे। दूसरी अहम वजह थी टे्रेजरी बिल के लिए बाजार तैयार करना।
परंतु बैंक जिनमें एक को छोड़कर लगभग सारे निजी क्षेत्र में थे, वे जमाकर्ताओं को बेहतर ब्याज दर की पेशकश नहीं करते थे। इसलिए सन 1962 से 1964 के बीच इस मसले से जुड़े हर व्यक्ति ने इस विषय को उलझाए रखा। इसके बाद सन 1964 के मध्य में नरसिम्हन ने वह प्रस्ताव पेश किया जिसने दरों के नियमन और सावधि जमा का मार्ग प्रशस्त किया।
उन्होंने कहा कि बैंक 1-14 दिन के लिए ब्याज नहीं चुका सकते, 15-30 दिन के लिए एक फीसदी ब्याज, 30-60 दिन के लिए दो फीसदी और 60-90 दिन के जमा के लिए तीन फीसदी ब्याज चुकाया जाएगा। आरबीआई ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
सन 1970 के दशक के मध्य तक नरसिम्हन आरबीआई के लिए सबसे जानकार व्यक्ति थे। लगभग हर बड़े मसले पर उनसे सलाह ली जाती थी और अक्सर उसे स्वीकार भी किया जाता था।
यह उनका ही सुझाव था कि आरबीआई कंपनियों को दिए जाने वाले ऋण की राशि का नियमन करे। ऐसे में एक करोड़ रुपये की सीमा तय की गई। इसका देश और नरसिम्हन दोनों पर विशिष्ट प्रभाव देखने को मिला।
सन 1975 में संजय गांधी चाहते थे कि उनकी ऋण सीमा बढ़ाकर दो करोड़ रुपये कर दी जाए। आरबीआई गवर्नर ने यह कहते हुए ऐसा करने से इनकार कर दिया कि उनके पास तो कोई फैक्टरी तक नहीं है तो वह ऋण सीमा बढ़ाने का आग्रह क्यों कर रहे हैं? परिणामस्वरूप सन 1975 के मध्य में जब एलआईसी के चेयरमैन के आर पुरी सेवानिवृत्त हुए तो उन्हें गवर्नर बना दिया। उन्होंने तत्काल उस ऋण सीमा को दोगुना कर दिया। यही उनका इकलौता बड़ा निर्णय था।
सन 1977 में जनता सरकार ने उनसे पद छोडऩे को कहा और पांच महीने के लिए नरसिम्हन को गवर्नर बनाया। वह ऐसे छह गवर्नरों में से एक रहे जिन्होंने एक साल से कम समय तक पद भार संभाला। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आरबीआई अधिनियम में कार्यवाहक गवर्नर की कोई व्यवस्था नहीं है।
बाद के समय में नरसिम्हन
सन 1981 में जब भारत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण के लिए बात कर रहा था तब नरसिम्हन ही वॉशिंगटन में थे। उनका साथ देने के लिए आरबीआई के दो अधिकारी भी थे। उनमें से एक थीं चांदी बाटलीवाला। वह इतनी काबिल अधिकारी रहीं कि उनकी अलग से जीवनी लिखी जानी चाहिए। उनके प्रयासों के कारण ही नरसिम्हन यह जान सके कि विस्तारित फंड सुविधा (ईएफएफ) ऋण को लेकर भारत के आवेदन पर अन्य देशों का क्या रुख रहने वाला है।
समाचार पत्र द हिंदू को संबंधित आशय पत्र प्राप्त हो गया और उसके प्रकाशन ने देश में भारी हलचल पैदा कर दी। नरसिम्हन को यकीन था कि यह जानकारी भारतीय प्रतिनिधिमंडल में से किसी व्यक्ति ने लीक की है। परंतु उन्होंने न तो किसी व्यक्ति का नाम लिया और न ही मामले को तूल दिया।
स्थानाभाव में मैं देश की नीति और क्रियान्वयन के क्षेत्र में उनके अन्य योगदानों को रेखांकित नहीं कर पा रहा हूं। इतना ही कहना उचित होगा कि उनका योगदान उनकी अध्यक्षता वाली दो समितियों द्वारा की गई बैंकिंग सुधार संबंधी अनुशंसाओं के समान ही महत्त्वपूर्ण हैं।
सन 2006 में उन्होंने अपने जीवन भर के काम के बारे में एक साक्षात्कार रिकॉर्ड किया था। यदि उसे वेबसाइट पर अपलोड किया जा सके तो यही उनके प्रति सबसे सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
0 comments:
Post a Comment