हाशिये पर स्त्रियां (जनसत्ता)

किसी भी समाज का मूल्यांकन इस बात से किया जाता है कि उसमें महिलाओं की स्थिति कैसी है। ये विचार भारतीय संविधान को यहां के समाज के लिए एक मार्गदर्शक दस्तावेज के रूप में सामने रखने वाले डॉ भीमराव आंबेडकर के हैं, लेकिन इसे दुनिया भर में सामाजिक विकास के एक पैमाने पर देखा जा सकता है। हमारे देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए सामाजिक, राजनीतिक, विधिक और प्रशासनिक स्तर पर दावों और वादों में कमी नहीं रही है।

लेकिन सच यह है कि आज भी इस दिशा में इतनी कामयाबी नहीं मिल सकी है, जिस पर संतोष किया जा सके। गौरतलब है कि वैश्विक आर्थिक मंच की अंतरराष्ट्रीय लैंगिक भेद अनुपात रिपोर्ट, 2021 में जिन देशों को बेहद खराब प्रदर्शन करने वाला बताया गया है, उसमें भारत एक है। इसके मुताबिक जिन एक सौ छप्पन देशों में महिलाओं के प्रति भेदभाव की स्थिति का आकलन किया गया, उसमें भारत एक सौ चालीसवें पायदान पर है। हालत यह है कि बाांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और भूटान जैसे छोटे और कमजोर माने जाने वाले देश भी इस मामले में भारत के मुकाबले काफी बेहतर स्थिति में हैं।

पिछले साल इसी आकलन में भारत का स्थान एक सौ तिरपन देशों की सूची में एक सौ बारहवां था। जाहिर है, सिर्फ साल भर में हमारा देश अट्ठाईस पायदान नीचे खिसक गया। अगर कोई समाज किसी समस्या से जूझ रहा है और उसमें सुधार की प्रक्रिया में है, तो कायदे से उसे स्थितियों को क्रमश: बेहतर करने की ओर बढ़ना चाहिए। मगर ताजा रिपोर्ट को संदर्भ माना जाए तो साफ है कि महिलाओं को समान जीवन-स्थितियां मुहैया करा पाने के मामले में तेज गिरावट आई है।

सही है कि पिछले साल भर में महामारी की वजह से उपजे हालात में आर्थिक मोर्चे पर व्यापक उथल-पुथल रही और इसकी वजह से बहुत सारे लोगों को अपने जीवन-स्तर से समझौता करना पड़ा। लेकिन अगर इस दौर में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को अवसरों से ज्यादा वंचित होना पड़ा और आर्थिक भागीदारी में कमी आई है तो इसका मतलब यह है कि यहां के समाज में सार्वजनिक जीवन से लेकर कामकाज तक के ढांचे में स्त्रियों के प्रति भेदभाव का रवैया ज्यादा मुखर हुआ है।

दरअसल, समाज में किसी तबके के बीच बदलाव की राह इस बात से तय होती है कि मुख्यधारा की राजनीति में उसकी भागीदारी कितनी सशक्त है। अफसोस की बात है कि अंतरराष्ट्रीय लैंगिक भेद रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सबसे ज्यादा गिरावट महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण उपखंड में ही आई है। सन् 2019 में महिला मंत्रियों का अनुपात जहां करीब तेईस फीसद था, वह इस साल घट कर नौ फीसद के आसपास रह गया है।

अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजनीतिक ढांचे में इस अफसोसजनक उपस्थिति के रहते बाकी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए कैसी जगह बन सकती है। यह बेवजह नहीं है कि महिला श्रम भागीदारी सहित पेशेवर और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में वेतन में विसंगति और शिक्षण में भागीदारी आदि में महिलाओं की भूमिका में काफी कमी आई है। सच यह है कि हर उस क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी काबिलियत साबित की है, जहां उसे मौका मिला है और इसीलिए वे सभी स्तरों पर बराबरी की हकदार हैं।

मगर पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह जब समाज से लेकर सत्ता और संस्थानों के व्यवहार और फैसलों तक पर हावी हो तो कई बार काबिलियत भी पिछड़ जाती है। आमतौर पर हर साल वैश्विक अध्ययनों में हमारे देश की महिलाओं की जो तस्वीर उभरती है, वह निराश करने वाली होती है। परिवार, समाज, राजनीति, प्रशासन आदि हर मोर्चे पर लैंगिक भेदभाव का जो अनुपात दिखता है, उससे देश के समग्र विकास की अवधारणा पर सवाल उठते हैं।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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