मेनका गांधी
अमरीका में खाद्य एवं औषधि विभाग ने पीले रंग के फिन वाली ट्यूना फिश के सारे उत्पाद बाजार से वापस लेने का आदेश दिया है। इसका कारण है कि इन उत्पादों से एक खास प्रकार की फूड पॉइजनिंग, स्कोम्ब्रॉइड फिश पॉइजनिंग का डर है। ऐसा तब होता है, जब लोग ऐसी मछली का सेवन कर लेेते हैं, जो हिस्टमीन नामक तत्व से दूषित हो चुकी हो। हिस्टमीन के कारण शरीर में एलर्जी के लक्षण दिखाई देते हैं।
यह दोष तब आता है जब फिश को समुचित रूप से फ्रीज नहीं किया जाता और बैक्टीरिया त्वचा के जरिये फिश के अंदर चला जाता है और वह उच्च स्तरीय हिस्टमीन से दूषित हो जाती है। स्कोम्ब्रॉइड पॉइजनिंग की पहचान यह है कि दूषित मछली के सेवन के बाद मुंह में जलन होने लगती है, मुंह सूज जाता है, त्वचा पर रैशेज दिखने लगते हैं और खुजली होती है। मरीज में जी घबराने, उल्टी और डायरिया के लक्षण दिखाई देते हैं। मुुंह लाल हो जाता है, सिर दर्द और बेहोशी के साथ ही कई बार आंखों के आगे अंधेरा छा जाना, पेट में ऐंठन, सांस लेने में तकलीफ होना एवं दम घुटने का आभास होना या मुंह का स्वाद बिगड़ जाना कुछ अन्य लक्षण हैं। ये लक्षण मछली के सेवन के बाद पांच से तीस मिनट के बीच ही दिखाई देने शुरू हो जाते हैं। कुछ घंटों में ये ठीक हो जाते हैं लेकिन कई लोगों में ज्यादा दिन तक ये लक्षण दिखाई देते हैं, उन्हें एंटी-हिस्टमीन लेने से लाभ हो सकता है। कई बार मरीज को आपात स्थिति में अस्पताल भी ले जाना पड़ता है। अस्थमा व दिल के रोगियों के लिए हिस्टमीन फूड पॉइजनिंग जानलेवा हो सकती है। इसके लक्षण हृदय रोग जैसे भी हो सकते हैं, इसलिए रोग की जांच में उचित चिकित्सीय सावधानी की जरूरत है। भारत के चिकित्सा समुदाय में इस संबंध में व्यापक जानकारी का अभाव है।
ट्यूना फिश के अलावा माही-माही, ब्लू फिश, सार्डिन, एन्कॉवी और हैरिंग नामक मछलियों में भी हिस्टमीन की आशंका पाई जाती है। मछलियों के अलावा हिस्टमीन अन्य खाद्य पदार्थों जैसे चीज, वाइन, अचार और स्मोक्ड मीट में भी पाया जा सकता है। अमरीकी बाजारों से लिए गए ट्यूना उत्पादों में हिस्टमीन लेवल मानक 50 पीपीएम से कहीं अधिक पाया गया। इन उत्पादों में यह 213 से 3,245 पीपीएम के बीच था। बर्गर और सैंडविच में इस्तेमाल होने वाला ट्यूना कई बार फ्रीजर से निकाल कर वापस रख दिया जाता है जबकि यह तापमान के उतार-चढ़ाव और बैक्टीरिया दोनों से ही प्रदूषित हो सकता है। सुशी, सैंडविच और सलाद में ट्यूना कच्ची प्रयोग की जाती है जबकि फिलेट्स, स्टीक्स और बर्गर में यह पकी हुई होती है। तेल, खारे पानी, पानी और सॉस में डिब्बाबंद मिलने वाली ट्यूना फिश का इस्तेमाल सैंडविच और सलाद में किया जाता है। कैन में भी बैक्टीरिया जनित हिस्टमीन जीवित रह सकता है। ट्यूना फिश को पकड़ते ही फ्रीज करने की जरूरत होती है लेकिन भारतीय मछुआरे तेज धूप में इसे कुछ घंटों बाद बंदरगाह पहुंचाते हैं। वहां से यह रेफ्रिजरेटेड ट्रकों में भेजी जाती है। विषाक्त मछली के सेवन से दुनिया में जितनी भी मौतें होती हैं, उनमें संभवत: हिस्टमीन ही बहुत बड़ा कारण है। ट्यूना फिश, गिल-जाल में पकड़ी जाती हैं, जान बचाने की जद्दोजहद में इनकी त्वचा छिल जाती है और जब तक इन्हें जाल से निकाला जाता है, हिस्टमीन बन जाता है। भारत में ट्यूना फिश खुले में बिना बर्फ पर रखे बेची जाती है, जबकि इसे पानी से निकालते ही फ्रीजर में रखना जरूरी होता है। इसलिए यहां हिस्टमीन को 100 पीपीएम से नीचे रखना मुश्किल है।
अब तक ट्यूना केरल और गोवा में ज्यादा बेची जाती थी और घरेलू बाजार में यह प्रमुख रूप से नहीं पाई जाती क्योंकि इसे यहां पारम्परिक तौर पर नहीं पकड़ा जाता। मत्स्य पालन और जैवविविधता संरक्षण के विश्व बैंक द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त प्रोजेक्ट और चेन्नई स्थित बे ऑफ बंगाल प्रोग्राम अंतर सरकारी संगठन (बीओबीपी-आइजीओ) के माध्यम सेे घरेलू ग्राहकों के बीच इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। केंद्रीय समुद्री मत्स्य शोध संस्थान के अनुसार भारतीय समुद्र में मछली की नौ प्रजातियां पाई जाती हैं लेकिन बाहर से लाई जाने वाली ट्यूना को सही ढंग से नहीं रखा जाता। अगर अमरीका और फ्रांस से प्रतिस्पद्र्धा करनी हो तो ज्यादा ट्यूना रखनी होगी, जिसके लिए ऑन बोर्ड रेफ्रिजरेशन की सुविधा सुनिश्चित करने की जरूरत है। परन्तु जो मछली स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, उसका प्रचार करना कहां तक उचित है? ट्यूना व कुछ अन्य मछलियों में मर्करी और धात्विक तत्व पाए जाते हैं जो शरीर के तंत्रिका तंत्र पर बुरा असर डालते हैं। बच्चों का तंत्रिका तंत्र वैसे भी विकसित होने की प्रक्रिया में होता है, इसलिए इस पर मर्करी का दुष्प्रभाव पड़़ सकता है। मार्च 2004 में अमरीका ने एक दिशानिर्देश जारी कर गर्भवती महिलाओं, नई माताओं और बच्चों को ट्यूना फिश का इस्तेमाल कम करने की सलाह जारी की थी। 2008 की एक रिपोर्ट के अनुसार, सुशी ट्यूना की कुछ किस्मों में मर्करी का स्तर खतरनाक मात्रा में पाया गया था।
अंतरराष्ट्रीय सी-फूड सस्टेनबिलिटी फाउंडेशन के अनुसार हिन्द महासागर में पीले फिन वाली ट्यूना, प्रशांत महासागर में बिगये ट्यूना और उत्तरी अटलांटिक में अल्बाकोर ट्यूना पाई जाती हैं। पैसिफिक कम्यूनिटी सचिवालय द्वारा 2012 में जारी की गई ट्यूना फिशरी असेसमेंट रिपोर्ट 2010 के अनुसार, हर किस्म का ट्यूना मत्स्य पालन कम कर देना चाहिए। क्या भारतीय जलवायु में न रह सकने वाली ट्यूना का भारतीय थाली में होना जरूरी है?
जो मछली स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, उसका प्रचार करना कहां तक उचित है? ट्यूना व कुछ अन्य मछलियों में मर्करी और धात्विक तत्व पाए जाते हैं जो शरीर के तंत्रिका तंत्र पर बुरा असर डालते हैं।
(लेखिका लोकसभा सदस्य, पूर्व केंद्रीय मंत्री और पशु अधिकार कार्यकर्ता हैं)
सौजन्य - पत्रिका।
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