चीन का चेहरा (जनसत्ता)

पिछले करीब साल भर से लद्दाख क्षेत्र में भारत और चीन के बीच जैसी खींचतान चल रही है, वह जगजाहिर है। इस बीच चीन ने जैसी हरकतें की हैं, वह भी छिपी नहीं है। जब भी भारत ने सख्त रुख अख्तियार किया और विश्व जनमत इससे सहमत होता दिखा तब चीन ने दिखावे के लिए अपने कदम पीछे हटाने की बात की। लेकिन जैसे ही उसके रुख को हालात बदलने के तौर पर देखा जाने लगा, चीन ने फिर अपना असली चेहरा दिखाना शुरू कर दिया। उदाहरण के तौर पर हाल ही में यह खबर आई थी कि चीन ने पूर्वी लद्दाख के विवादित क्षेत्र से अपने सैनिकों को वापस बुलाना शुरू कर दिया है। लेकिन अब एक बार फिर उसने जिस तरह की अकड़ दिखाई है, उससे यह साफ है कि उस पर फिलहाल भरोसा करना मुश्किल है। विडंबना यह है कि ग्यारहवें दौर की सैन्य वार्ता के बाद भी इन इलाकों से संघर्ष को खत्म करने में कोई मदद नहीं मिली। अब उसने पूर्वी लद्दाख में हॉट स्प्रिंग्स, गोगरा और देपसांग के संघर्ष वाले क्षेत्रों में सैनिकों को पीछे हटाने से से इनकार कर दिया है। सवाल है कि उसके इस ताजा रुख को कैसे देखा जाएगा!

गौरतलब है कि पूर्वी लद्दाख के हॉट स्प्रिंग और गोगरा इलाकों से चीन के सैनिकों की वापसी का काम पिछले साल जुलाई में शुरू हो गया था, लेकिन तब वह पूरा नहीं हो सका। मगर घटनाक्रम जिस दिशा में जा रहे थे, उससे यह उम्मीद जरूर बंधी थी कि चीन के अड़ियल रवैये की वजह से इस क्षेत्र में जिस तरह की जटिलता खड़ी हो रही है, उसमें समाधान का रास्ता निकलेगा। मगर हालत यह है कि आज भी इस क्षेत्र में कम से कम तीन ठिकानों पर भारत और चीन की सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं। सही है कि दोनों तरफ से सैनिकों की तादाद कोई बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन कूटनीतिक दृष्टि से देखें तो सिर्फ इतने भर से बहुत सारी चीजें तय होने लगती हैं।


दरअसल, इन क्षेत्रों पर अपनी मौजूदगी का महत्त्व चीन को मालूम है। इनसे उसे गोगरा, हॉट स्प्रिंग और कोंगका ला इलाके में तैनात अपने सैनिकों के लिए रसद और दूसरी सुविधाएं पहुंचाने में मदद मिलती है। इसी तरह देपसांग पर नजर रखना भी वह इसलिए जरूरी मानता है कि वहां भारत ने अपना रणनीतिक ठिकाना बना रखा है।


बीती फरवरी में इस मसले पर चीन और भारत के बीच सहमति बनी भी थी कि पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा के बीच के इलाके को फिर से ‘नो मैन्स लैंड’ के रूप में बहाल कर दिया जाएगा। लेकिन उसके ताजा रुख से उसकी असलियत को समझा जा सकता है। चीन के इस रवैये से उन आशंकाओं को ही पुष्टि मिलती है जिसमें पैंगोंग सो झील क्षेत्र से चीनी सैनिकों के पीछे हटने से खतरा कम होने के बावजूद उस पर भरोसा करने में सावधानी बरतने की बात कही गई थी। सवाल है कि आखिर चीन अपने इस तरह के रुख से क्या हासिल करना चाहता है।

हालांकि ऐसे तमाम मौके सामने आते रहे हैं, जब यही साबित हुआ कि उस पर पूरी तरह भरोसा करना जोखिम का काम है। फिर भी पड़ोसी देश और रणनीतिक लिहाज से महत्त्वपूर्ण होने के चलते भारत के लिए अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करना जरूरी है। इसलिए भारत ने अब तक वार्ता का दरवाजा खुला रखा है और अब भी चीन से यही उम्मीद की जा रही है कि वह निर्धारित ठिकानों से अपनी सेना को वापस बुला ले। संभवत: चीन को भी इस बात का अंदाजा हो कि अगर उसने अपनी चाल नहीं बदली तो आने वाले वक्त में कैसे हालात पैदा हो सकते हैं।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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