अपने ही जाल में फंसे इमरान (नवभारत टाइम्स)

पाकिस्तान सरकार और खुद प्रधानमंत्री इमरान खान भी फ्रांसीसी राजदूत को वापस भेजे जाने के प्रस्ताव से सहमत नहीं हैं। पिछले दिनों उन्होंने टीवी पर प्रसारित एक संबोधन में कहा था कि फ्रांसीसी राजदूत को वापस भेजने का मतलब होगा पूरे यूरोपियन यूनियन (ईयू) से रिश्ते खत्म होना।

 

अपनी गलत प्राथमिकताओं और समझौतापरस्त नीतियों के चलते पाकिस्तान की इमरान खान सरकार ऐसी स्थिति में फंस गई है कि उससे न आगे बढ़ते बन रहा है और न पीछे हटते। एक सप्ताह पहले जिस तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) को आतंकी संगठन बताते हुए इमरान सरकार ने बैन किया था, उसी के आगे घुटने टेकते हुए उसने यह स्वीकार कर लिया है कि संसद की दो दिवसीय बैठक बुलाकर उसमें फ्रांसीसी राजदूत को वापस भेजने का प्रस्ताव पेश किया जाएगा। ध्यान रहे, पाकिस्तान सरकार और खुद प्रधानमंत्री इमरान खान भी फ्रांसीसी राजदूत को वापस भेजे जाने के प्रस्ताव से सहमत नहीं हैं। पिछले दिनों उन्होंने टीवी पर प्रसारित एक संबोधन में कहा था कि फ्रांसीसी राजदूत को वापस भेजने का मतलब होगा पूरे यूरोपियन यूनियन (ईयू) से रिश्ते खत्म होना। चूंकि पाकिस्तान के टेक्सटाइल एक्सपोर्ट का 50 फीसदी यूरोप को जाता है, इसलिए ईयू से रिश्ते खत्म होने का मतलब होगा देश के टेक्सटाइल एक्सपोर्ट का आधा हिस्सा गायब हो जाना। मगर इमरान खान की ये समझदारी की बातें


टीएलपी के जुनूनी समर्थकों को समझ में नहीं आनी थीं, ना आईं। उन्होंने अपना कथित आंदोलन तेज कर दिया और देश में जगह-जगह आंदोलनकारियों की पुलिस से मुठभेड़ शुरू हो गई। चार पुलिसकर्मी मारे गए और बड़ी संख्या में घायल हुए। यही नहीं करीब दर्जन भर वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बंधक भी बना लिए गए।


नतीजा यह कि अपने ही देश में पाकिस्तान सरकार ऐसी लाचार हो गई कि उसे इस प्रतिबंधित आतंकी संगठन के साथ बातचीत करके बाकायदा समझौता करना पड़ा। इस पूरे प्रकरण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अपने देश और सरकार को इस अपमानजनक स्थिति में पहुंचाने के लिए अगर कोई एक व्यक्ति सबसे ज्यादा जिम्मेदार है तो वह हैं खुद प्रधानमंत्री इमरान खान। फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों ने अगर मोहम्मद साहब के कार्टून छापने को अपने देश के अंदर अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा मसला बताया था, तो यह उनके देश और संविधान के दायरे में आने वाली बात थी। अन्य देशों की तरह पाकिस्तान के भी धार्मिक कट्टरपंथी संगठनों ने इस पर प्रतिक्रिया दी भी तो बतौर प्रधानमंत्री इमरान खान को उससे दूरी बनाए रखनी चाहिए थी। मगर उन्होंने इसे इस्लामी जगत में अपना कद ऊंचा करने के एक मौके के रूप में देखा और भुनाने में जुट गए। इसी का परिणाम है कि देश के अंदर कट्टरपंथियों की हिम्मत और ताकत इस कदर बढ़ गई कि उन्होंने सरकार को घुटने पर ला दिया। मामला भले पाकिस्तान का हो, सबक इसमें हर देश और समाज के लिए है। धार्मिक कट्टरंपथ को अगर आपने किसी भी रूप में बढ़ावा देना शुरू किया तो फिर यह सिलसिला आसानी से नहीं थमता। आखिरकार उसकी कीमत पूरे समाज को चुकानी पड़ती है।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

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