कोरोना महामारी का दूसरा दौर शुरू होते ही बीते साल का वही मंजर दिखना शुरू हो गया है, जिसमें बस व रेलवे स्टेशनों पर कामगारों का हुजूम उमड़ा था। हताश और बेबस लोग अपनी जरूरत का सामान लादे और अपने बच्चों को संभाले अपने गांव व पैतृक निवास लौटने को आतुर थे। वे दोहरे संकट में हैं। एक तो जिस रोजगार की तलाश में वे शहरों में आये थे, वह छूटता नजर आ रहा है, वहीं संक्रमण का खतरा बढ़ रहा है। मजबूरी में अपने छोटे बच्चों को इस असुरक्षित वातावरण में लेकर जा रहे हैं। कमोबेश कोरोना संकट के दूसरे दौर में भी वही सब कुछ दोहराया जाता दिख रहा है। चिंता इस बात की है कि राजनेताओं के आग्रह के बावजूद वे रुकने को तैयार नहीं हैं, उन्हें डर सता रहा है कि यदि लॉकडाउन लंबा खिंचा तो फिर वे कहीं पिछले साल की तरह दाने-दाने के लिये मोहताज न हो जायें। उन्होंने दिल्ली में छह दिन के लॉकडाउन लगाने पर मुख्यमंत्री की उस अपील पर भी ध्यान नहीं दिया, जिसमें सरकार ने उनके खाने, रहने, टीकाकरण और सुरक्षा की व्यवस्था करने का वादा किया। समाज में राजनेताओं के प्रति अविश्वास इतना गहरा है कि लोग उन पर विश्वास करने को तैयार नहीं होते। अच्छी बात यह है कि इस बार बसें व ट्रेनें चल रही हैं। इसके बावजूद श्रमिकों से वाहन चालकों द्वारा ज्यादा किराया वसूलने की शिकायतें सामने आ रही हैं। जान जोखिम में डालकर बसों की छतों पर सवार कामगार किसी तरह बस अपने घर पहुंचने को आतुर हैं। यह जानते हुए भी कि उनके गांव पहुंचने पर संक्रमण को लेकर उन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखा जायेगा और पहले कुछ दिनों के लिये क्वारंटाइन किया जायेगा। कहा जा रहा है कि यदि उन्हें रोका न गया तो वे सुपर स्प्रेडर साबित हो सकते हैं। अत: उन्हें शहरों में उनके स्थानों पर ही रहने को प्रेरित किया जाये।
दरअसल, एक तो बीते साल की तमाम घोषणाओं पर अमल नहीं हुआ और दूसरे पिछले साल के कटु अनुभवों के बीच सख्त लॉकडाउन की आशंका बनी हुई है। रोज कमाकर खाने वाला वर्ग लॉकडाउन की मार ज्यादा समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकता। इस बार भी कोई भरोसेमंद उपाय राज्य सरकारों और औद्योगिक इकाइयों की तरफ से नहीं किये गये हैं। बीते लॉकडाउन में काम देने वाले सेवायोजकों और ठेकेदारों द्वारा फोन बंद कर दिये जाने से श्रमिक दर-दर की ठोकरें खाते रहे थे। सरकारों ने श्रमिकों को यह भरोसा नहीं दिलाया कि यदि लॉकडाउन लंबा चलता है तो वे किन आपातकालीन उपायों को अमल में लायेंगे। केंद्र सरकार की तरफ से भी कोई उत्साह जगाने वाली घोषणाएं सामने नहीं आई। नई पीढ़ी को पिछले लॉकडाउन के बाद हुए पलायन ने देश के विभाजन के क्षणों की याद ताजा करा दी थी। यह एक बड़ी मानवीय त्रासदी थी जब करीब एक करोड़ कामगार बेबसी में अपने राज्यों की ओर लौटते नजर आये। पैदल, साइकिल व ट्रकों के जरिये लाखों लोगों के हुजूम सड़कों पर नजर आये। कितने ही लोग बीमारी से और सड़क व ट्रेन दुर्घटनाओं में मारे गये। उनका जीवन व जीविका दोनों संकट में पड़ गये थे। राज्य सरकारों ने भी इन कामगारों को राज्यों में रोकने के लिये बड़ी-बड़ी घोषणाएं कीं, लेकिन वे सिर्फ घोषणाएं ही साबित हुईं। कामगार फिर महानगरों की ओर लौटे थे, लेकिन दूसरी कोरोना लहर ने उनके अरमानों पर फिर पानी फेर दिया। इस बार पुनः राज्य सरकारों को लौट रहे इन कामगारों की कोरोना जांच, खाने-पीने और पुनर्वास पर गंभीरता से विचार करना होगा ताकि कामगारों का दुख-दर्द और न बढ़े। सामाजिक रूप से भी यह विडंबना है कि जिन शहरों का जीवन संवारने के लिये ये कामगार घर-बार छोड़कर आते हैं, उस शहर का समाज भी इनके प्रति संवेदनशील नहीं होता। प्रधानमंत्री ने बीते साल लोगों से मकानों के किराये को टालने और सेवायोजकों से वेतन न काटने की अपील की थी। लेकिन न तो समाज इनकी मदद के लिये आगे आया, न मकान मालिक ने रहमदिली दिखाई और न ही सेवायोजक ने वेतन काटने में कोई संवेदनशीलता दिखायी।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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