कलराज मिश्र, राज्यपाल (राजस्थान)
बाबा साहेब आम्बेडकर के चिंतन और उनकी उदात्त दृष्टि पर जब भी मन जाता है, सामाजिक जनतंत्र के लिए किए उनके कार्य जहन में कौंधने लगते हैं। संविधान सभा की आखिरी बैठक में भी उनका उद्बोधन सामाजिक जनतंत्र पर ही केंद्रित था। उनका कहना था कि जाति प्रथा और लोकतंत्र साथ-साथ नहीं रह सकते। इसीलिए भारतीय संविधान में ऐसे नियमों की पहल हुई जिनमें देश में किसी भी हिस्से में रहने वाले नागरिकों के लिए जातीय और भाषायी आधार पर कोई भेद-भाव नहीं हो। संविधान का जो प्रारूप उन्होंने बनाया उसमें मूल बात यही थी कि प्रथमत: देश के सभी नागरिक भारतीय हैं और बाद में उनकी कोई और पहचान। नवम्बर, 1948 में उन्होंने कहा था कि हमने भारत वर्ष को राज्यों का संघ नहीं, बल्कि एक संघ राज्य कहा है। वह भारत में सामाजिक विभक्तिकरण से चिंतित थे इसीलिए उन्होंने कहा कि लोकशाही की राह के रोड़ों को हमें पहचानना ही होगा क्योंकि जनतंत्र में जनता की निष्ठा की नींव पर ही संविधान का भव्य महल खड़ा हो सकता है।
बाबासाहेब ने इस बात पर भी जोर दिया कि राष्ट्र कोई भौतिक इकाई नहीं है। राष्ट्र भूतकालीन लोगों द्वारा किए गए सतत प्रयासों, त्याग और देशभक्ति का परिणाम है। राष्ट्रीयता सामाजिक चेतना है और इसी से बंधुता की भावना विकसित होती है। इसमें संकीर्णता के विचार सबसे बड़ी बाधा है। बतौर भारतीय संविधान शिल्पी उन्होंने फ्रेंच रेवलूशन से तीन शब्द लिए - 'लिबर्टी, इक्वलिटी और फ्रैटर्निटी'। संविधान के मूल में सम्मिलित इन शब्दों ने उनके राजनीतिक और सामाजिक जीवन दर्शन को भी गहरे से प्रभावित किया। इसीलिए संविधान के मूल अधिकारों में अनुच्छेद 14 से 18 के माध्यम से समानता के अधिकार की व्याख्या है। इसी संबंध में संविधान के अनुच्छेद 19 से 22 के माध्यम से स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है और अनुच्छेद 23 और 24 में शोषण के विरुद्ध अधिकार दिया गया है। अनुच्छेद 19(2) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में भी किसी भी जाति, वर्ग या समुदाय के विरुद्ध अनर्गल अभिव्यक्ति को बाधित किया गया है। संविधान के अंतर्गत इसमें किसी भी तरह देश की सुरक्षा, सम्प्रभुता और अखंडता को नुकसान नहीं होना चाहिए और इनके संरक्षण के लिए अगर कोई कानून है या बन रहा है, तो उसमें भी बाधा नहीं आनी चाहिए। अनुच्छेद 25 से 28 के माध्यम से भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। मैं यह मानता हूं कि विश्वभर के संविधानों में यह भारतीय संविधान ही है जिसमें इस तरह से मूल अधिकारों की विषद् व्याख्या की गई है।
बंबई की महिला सभा में उन्होंने कहा था - 'नारी राष्ट्र की निर्मात्री है, हर नागरिक उसकी गोद में पलकर बढ़ता है, नारी को जागृत किए बिना राष्ट्र का विकास संभव नहीं है।' भारतीय संदर्भ में संभवत: वह पहले ऐसे अध्येता थे जिन्होंने जातीय संरचना में महिलाओं की स्थिति को जेंडर की दृष्टि से समझने की कोशिश की। उनका मूल दृष्टिकोण यही था कि कैसे समाज में सभी स्तरों पर समानता की स्थापना हो। इसीलिए उन्होंने समाज को श्रेणीविहीन और वर्णविहीन करने पर निरंतर जोर दिया। उनका यह कहा तो सदा ही मन को आलोकित करता है कि 'क्रांति लोगों के लिए होती है, न कि लोग क्रांति के लिए होते हैं।' यहां यह जानना भी जरूरी है कि संविधान में अनुच्छेद 370 उनकी इच्छा के विरुद्ध जोड़ा गया था। बाबासाहेब के समग्र चिंतन और दृष्टि को एकांगी दृष्टि से देखने की बजाय उस पर समग्रता से गहराई से विचार करने की जरूरत है। ऐसा करेंगे तो पाएंगे कि देश की एकता और अखण्डता के साथ समानता के बीज वहां पर हैं। समानता और न्याय के साथ 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' का उनका दर्शन इसीलिए आज भी प्रासंगिक है और आने वाले कल में भी प्रासंगिक रहेगा।
सौजन्य - पत्रिका।
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