जुगल किशोर, वरिष्ठ जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञ
जब संक्रमण तेजी से फैल जाए और उसके भी आंतरिक कारण हों, तब जिस भी व्यक्ति को खांसी, जुकाम और बुखार हो, तो बहुत आशंका है कि उसे कोरोना संक्रमण होगा। ऐसे लक्षण वाले सभी लोगों को आरटीपीसीआर जांच कराने की जरूरत नहीं है। इससे हम जांच पर पड़ रहे अनावश्यक भार को कम कर सकते हैं। कम से कम लोग जांच कराएंगे, तो जरूरी व गंभीर लोगों की जांच में तेजी आएगी। अब यह संख्या दिखाना कदापि आवश्यक नहीं है कि हमारे कितने लोग संक्रमित हो गए, अभी इलाज करने की ज्यादा जरूरत है।
मिसाल के लिए, जब स्वाइन फ्लू आया था, तो उसके खत्म होने का कारण ही यही था कि हमने जांच को बंद कर दिया था, जांच हम उन्हीं की करते थे, जहां जरूरी हो जाता था, तो इससे बीमारी अपने आप कम हुई। स्वाभाविक है, जैसे-जैसे संक्रमण के मामले बढ़ते हैं, वैसे-वैसे लोगों के बीच तनाव भी बढ़ता है। अब यह मानकर चलना चाहिए कि काफी लोग संक्रमित हो गए हैं और अब जो लोग ऐसे लक्षणों के साथ आएंगे, वो कोरोना पीड़ित ही होंगे। लक्षण आते ही घर में ही क्वारंटीन रहते हुए अपना इलाज शुरू कर देना चाहिए। जांच कराने की भागदौड़ी से बचना चाहिए। इस मोर्चे पर भी आईसीएमआर काम कर रहा है कि कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जाए, ताकि जहां आवश्यक हो, वहीं अस्पताल का सहारा लिया जाए। इसके मापदंड तय किए जा रहे हैं, एक अल्गोरिदम बनाने की कोशिश हो रही है, जिसे सिंड्रोमिक अप्रोच भी कहते हैं। यह इसलिए जरूरी है, ताकि केवल लक्षण के आधार पर इलाज हो सके। साथ ही, यह जरूरी नहीं कि हम मरीज को भर्ती करने के लिए आरटीपीसीआर का इंतजार करें। रेपिड टेस्ट की रिपोर्ट आधे घंटे से भी कम समय में मिल जाती है। तत्काल मरीज का इलाज शुरू करें और उसी दौरान आरटीपीसीआर भी कर लें। इधर, आईसीएमआर ने आरटीपीसीआर सहित छह जांचों को मंजूरी दी है। अभी रिपोर्ट आने में देरी हो रही है, लेकिन आरटीपीसीआर जांच की जो साइकिल है, वह चलती है, तो तीन से चार घंटे लगते हैं। आप कितनी भी जल्दी करें, लैब पास में हो, तो भी चार-पांच घंटे तो रिपोर्ट आने में लग ही जाते हैं। हमारे देश में बहुत सारे ऐसे जिले हैं, जहां आरटीपीसीआर सुविधा उपलब्ध नहीं है। सैंपल को दूसरे जिलों में भेजा जाता है, तो उसमें और समय लगता है। इस वजह से देर होती है। हर जगह लैब खोलना भी आसान नहीं होता। लैब की गुणवत्ता जरूरी है, उसे स्थापित करने की एक पूरी प्रक्रिया है। लैब सुविधा अगर बिना गुणवत्ता वाली जगह पर होगी, तो गलत रिपोर्ट आएगी। लैब में अनेक तरह के रसायन होते हैं, उनका रखरखाव भी महत्वपूर्ण होता है। कितने तापमान पर रखना है, कहां रखना है, लैब को पूरे मापदंड पर खरा उतरना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि लैब आप कहीं भी खोल दें और जांच शुरू हो जाए। अच्छी लैब वही है, जो तय मापदंडों को खरी उतरती हो।
पिछले वर्ष जांच की जो स्थिति थी, उसमें काफी सुधार आया है, लेकिन अभी की जरूरत के हिसाब से देखें, तो पर्याप्त नहीं है। जांच की सुविधा को रातों-रात खड़ा नहीं किया जा सकता। इसलिए अभी पूरा जोर ज्यादा से ज्यादा लोगों के इलाज पर होना चाहिए। आपदा प्रबंधन का यही श्रेष्ठ तरीका है। जो जांच व इलाज के संसाधन हैं, उन्हें बहुत ढंग से उपयोग में लाने की जरूरत है, ताकि कम से कम संसाधन में ज्यादा से ज्यादा लोगों को राहत मिले। जांच और इलाज के साथ ही, टीकाकरण भी तेज करने की जरूरत है। एक मई से 18 साल से ज्यादा उम्र के लोगों को भी टीका लगने की शुरुआत हो जाएगी। कुछ राज्यों ने टीके की किल्लत पहले ही बता दी है। केंद्र सरकार ने टीका संग्रहण में जो कामयाबी हासिल की थी, उससे थोड़ी मदद मिल पाएगी, लेकिन केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से कहा है कि वे अपने स्तर पर ही मान्यताप्राप्त वैक्सीन जुटाने के प्रयास करें। यह तरीका ठीक है, लेकिन दिक्कत क्रियान्वयन में है। वैक्सीन को लगाने में है। अव्वल, तो जब हम किसी भीड़ भरी जगह पर जाते हैं, तो वहां संक्रमण का खतरा ज्यादा होता है। यह बात हो रही है कि लोग जब टीका लेने अस्पताल जाते हैं और वहां भीड़ रहती है, तो वे खुद को खतरे में डालते हैं। ऐसे में, बहुत जरूरी है कि टीका केंद्रों का हम विकेंद्रीकरण करें। अब टीका केंद्रों को अस्पतालों से अलग करने की भी मांग हो रही है। अभी तक टीकाकरण का कोई ऐसा खतरा सामने नहीं आया है कि टीका लेने के बाद अस्पताल की जरूरत पड़े। टीका केंद्रों को अस्पताल से कुछ दूर रखा जा सकता है। एक बात यह भी ध्यान रखने की है कि अस्पताल में काम करने वाले जो स्वास्थ्यकर्मी हैं, उन्हें टीकाकरण केंद्रों पर बड़े पैमाने पर नहीं भेजा जा सकता। स्वास्थ्यकर्मियों की वैसे ही कमी है, अगर उन्हें अस्पतालों से बाहर तैनात कर दिया जाए, तो अस्पतालों में मरीजों का इलाज मुश्किल हो जाएगा। ऐसे मेडिकल स्टाफ को टीकाकरण में लगाना होगा, जो छोटे या ऐसे केंद्रों पर पदस्थ हैं, जहां मरीजों को भर्ती नहीं किया गया है। अस्पतालों पर दबाव बढ़ाना ठीक नहीं है, उनके दबाव को साझा करने की जरूरत है। बेशक, एक मई से टीका लेने वालों की भीड़ उमड़ सकती है, तो टीका केंद्रों के विकेंद्रीकरण से भीड़ को रोका जा सकता है।
टीके के अभाव को दूर करने के लिए भी सरकार ने प्रयास तेज किए हैं। विदेश से वैक्सीन का आयात होना है, साथ ही, देश में उत्पादन बढ़ाने की कोशिशें जारी हैं। कच्चा माल मिलते ही स्वदेशी कंपनियां ज्यादा से ज्यादा टीके बनाने की क्षमता रखती हैं। हमें यह देखना होगा कि एक तरह की आबादी में अलग-अलग तरह के टीके का उपयोग उतना अच्छा नहीं होगा। एक तरह का टीका हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को लगाएं, तो बेहतर है। राज्यों को टीकों की संख्या को लेकर विचलित नहीं होना चाहिए। टीकों की उपलब्धता के हिसाब से ही अभियान चलाने की जरूरत है। राज्यों को अपने उपलब्ध संसाधनों और स्वास्थ्यकर्मियों की सीमित संख्या को देखते हुए अपनी योजना बनानी पड़ेगी। एक और बात आज महत्व की है। अगर किसी को शक है कि उसे संक्रमण हो चुका है, तो वह तत्काल टीका न ले। डॉक्टर भी यही सलाह दे रहे हैं कि कोरोना संक्रमित हुए लोगों को कम से कम तीन महीने तक टीका नहीं लेना चाहिए और पूरी सावधानी से रहना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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