गगनदीप कंग, प्रोफेसर, क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर
भारत में ट्विटर एक हताशा भरी जगह है। बेड, ऑक्सीजन के स्रोत, रेमडेसिविर और प्लाज्मा के लिए अनुरोध से ट्विटर भरा पड़ा है। यहां तक कि वॉलंटियर भी संदेशों का प्रसार कर रहे हैं और मदद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। टोसिलिजुमैब और इटोलिजूमैब जैसे कठिन उच्चारण वाले शब्द लोगों की बातचीत और मैसेज में सुनने को मिल रहे हैं और परिवार या दोस्त की देखभाल के लिए आवश्यक चीजें जुटाने में असमर्थ होने की वजह से लोग निराशा और अपराधबोध से ग्रस्त हो रहे हैं। हम एक ऐसी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के साथ संघर्ष कर रहे हैं, जो बेहतर हालात में भी पहुंच और गुणवत्ता के लिहाज से असमानता से भरी है। मौसमी बीमारियों में वृद्धि होती है, तो उसके लिए भी अस्पतालों में सीमित क्षमता है। प्रशिक्षित और योग्य स्टाफ कम हैं, खासकर संक्रामक रोगों और गंभीर रोगियों की देखभाल के संदर्भ में, और स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था अस्त-व्यस्त है। किसी भी समय, और खासकर अभी की स्थिति में साक्ष्य-आधारित चिकित्सा, या ‘सही समय पर सही मरीज की सही देखभाल’ जरूरी है।
भारतीय चिकित्सा समुदाय और स्वास्थ्य निति निर्माताओं के रूप में हमने इस महामारी के समय अच्छा काम नहीं किया है। चिकित्सा की भारतीय प्रणालियों में सदियों से अर्जित ज्ञान का भी हमने अनादर किया है। हमने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन जैसी दवाओं के मामले में विशेषज्ञों की राय को ताक पर रख दिया, जबकि आंकड़ों से यह बात सामने आ रही थी कि इसने काम नहीं किया है। पिछले हफ्ते राष्ट्रीय कोविड-19 टास्क फोर्स के दिशा-निर्देशों में हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन और बुडेसोनाइड के इस्तेमाल को समतुल्य माना गया है और अनुशंसा की गई है कि ये दवाएं ‘काम कर सकती हैं’। बुडेसोनाइड का कम से कम ओपन लेवल स्टोइक परीक्षण ने समर्थन किया है और दिखाया है कि इससे अस्पताल में दाखिल होने की जरूरत कम पड़ती है और ठीक होने में कम समय लगता है। साक्ष्य आधारित चिकित्सा के लिए आजीवन सीखने व चिकित्सा बिरादरी तथा मरीजों की निरंतर शिक्षा की जरूरत होती है। एक नई संक्रामक बीमारी के लिए, जहां हमें इस बात की कम जानकारी है कि उसमें नुकसान कैसे होता है और इसे कैसे संभालना है, वैसी हालत में पुरानी और नई दवाओं तथा चिकित्सा प्रबंधन उपायों का परीक्षण करके साक्ष्य पैदा करने पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है।
महामारी के दौरान शुरू में हम चीन से आने वाली जानकारी पर बहुत अधिक निर्भर थे, जहां यह दिखाई दिया कि हमें तुरंत और गहन वेंटिलेटर की आवश्यकता है, और तब एंटी-वायरल तथा अन्य दवाओं के लिए कई परीक्षणों का समर्थन किया गया था। गहन देखभाल विशेषज्ञों के अनुभवों के माध्यम से अब हम जानते हैं कि कई मरीजों को ऑक्सीजन मास्क, हाई-फ्लो नेजल कैन्यल या नॉन-इनवेसिव वेंटिलेशन की मदद से जहां तक संभव हो सके, वेंटिलेटर से दूर रखा जा सकता है। हालांकि, जब विशिष्ट दवाओं की बात आती है, तो सही मरीज के लिए सही समय पर सही दवा काम करती है और वह दवा साक्ष्यों पर निर्भर होनी चाहिए। और यह भी कि साक्ष्य क्लिनिकल परीक्षणों के माध्यम से निर्मित किए जाएं, न कि लोगों की राय पर निर्भर हों। यह जानने के लिए कि दवाओं की आवश्यकता कब होती है, यह समझना महत्वपूर्ण है कि रोग कैसे पैदा और विकसित होता है। प्रारंभिक चरण में, बीमारी मुख्य रूप से सार्स-कोव-2 की प्रतिकृति द्वारा संचालित होती है। बाद में, खासकर जब संक्रमण नियंत्रित नहीं हो पाता है और लक्षण गंभीर होने लगते हैं, तब यह बीमारी सार्स-कोव-2 के प्रति अनियंत्रित प्रतिरक्षा और उत्तेजक प्रतिक्रिया से संचालित होती प्रतीत होती है, जिसकी परिणति उत्तकों की क्षति के रूप में होती है। सामान्य रूप से इस समझ के आधार पर, बीमारी के दौरान शुरुआती अवस्था में किसी भी एंटीवायरल उपचार का सबसे जल्दी असर होता, जबकि इम्यूनोसप्रेसिव/एंटी-इंफ्लेमेटरी उपचार की जरूरत कोविड-19 के बाद की अवस्थाओं में पड़ती है।
बीमारी के प्रारंभिक चरण में बुडेसोनाइड (अस्थमा के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक स्टेरॉयड) और गंभीर बीमारी वाले अस्पताल में भर्ती मरीजों में डेक्सामेथासोन के इस्तेमाल के परीक्षणों के सकारात्मक आंकड़ों से यह प्रतीत होता है कि रोग को बढ़ने से रोकने में स्टेरॉयड महत्वपूर्ण हैं। जहां तक रेमडेसिविर की बात है, तो गंभीर बीमारी पर कोई प्रभाव नहीं दिखा, लेकिन कुछ परीक्षणों में दिखा कि जो मरीज ऑक्सीजन की जरूरत वाली अवस्था में थे और जिन्हें हाई-फ्लो ऑक्सीजन या नॉन-इनवेसिव वेंटिलेशन की जरूरत नहीं थी, रेमडेसिविर ने अवधि कम करने और मृत्यु को रोकने में कुछ फायदा पहुंचाया। इससे यह रेखांकित होता है कि यह दवा सभी मरीजों के लिए नहीं है, बल्कि उपचार के एक विशेष चरण में एक छोटे से वर्ग के लिए है।
इसी तरह टोसिलिजुमैब के लिए भी (स्टेरॉयड सहित अन्य चिकित्साओं के संयोजन के साथ) साक्ष्य-आधारित अनुशंसाएं मरीजों के एक छोटे-से वर्ग तक सीमित हैं, जिनमें बीमारी तेजी से बढ़ रही हो और जिन्हें या तो हाई-फ्लो ऑक्सीजन की आवश्यकता है या नॉन-इनवेसिव वेंटिलेशन की। प्लाज्मा थेरेपी के लिए, जैसा कि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च समर्थित प्लासीड ट्रायल में दिखाया गया है, इसका कोई सबूत नहीं है कि दाताओं के किसी भी समूह से लिया गया प्लाज्मा मददगार साबित हो रहा है। और वर्तमान में इसकी अनुशंसा भी नहीं की जा रही है। स्पष्ट जवाब बड़े क्लिनिकल परीक्षणों से मिलते हैं। भारत की क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री में हमारे पास 400 से अधिक पंजीकृत अध्ययन हैं, जिनमें से ज्यादातर छोटे अध्ययन हैं, जो भविष्य की प्रैक्टिस के बारे में जानकारी नहीं प्रदान करेंगे। लोग शिद्दत से उन दवाओं को ढूंढ़ रहे हैं, जिनकी जरूरत नहीं है! यह सुनिश्चित करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि सभी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता उपचार के बारे में बताने के लिए साक्ष्यों का उपयोग करें। पेशेवर संगठन, अनुसंधान समूह, नियामक और नीति निर्माताओं को यह सुनिश्चित करने में बड़ी भूमिका निभानी चाहिए कि उपचार का उपयोग जरूरत के मुताबिक किया जाए, न कि झूठी उम्मीद पैदा करने के लिए।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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