कोरोना संकट की वजह से उपजी मौजूदा स्थिति को अगर कुछ देर के लिए किनारे रख भी दिया जाए तो पिछले कुछ दशकों के दौरान जलवायु में आ रहे बदलावों को लेकर लगातार वैश्विक स्तर पर चिंता जताई जाती रही है। विडंबना यह है कि इस मसले पर सालों से हो रहे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में व्यापक विचार और बहसों के बावजूद अब तक किसी ठोस नतीजे और कार्ययोजना तक पहुंचने में कामयाबी नहीं मिल सकी है।
खासतौर पर विकसित देशों का रवैया ऐसा विरोधाभासी रहा है कि वे चिंता जताने और सख्ती बरतने के मामले में ठोस कदम उठाने की बात तो करते हैं, लेकिन अपनी उन नीतियों पर पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं होते हैं जो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। इसके बावजूद सच यही है कि जलवायु में अस्वाभाविक उतार-चढ़ाव विश्व की चिंता बनी हुई है और इसके हल के लिए कोशिशें जारी हैं। इसी क्रम में गुरुवार से शुरू हुए जलवायु शिखर सम्मेलन में दुनिया के चालीस नेताओं ने हिस्सा लिया, जिसमें एक बार फिर कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के मकसद से विश्व के नेताओं को एकजुट करने के लिए प्रतिबद्धता जताई गई।
गौरतलब है कि अब तक कार्बन उत्सर्जन को लेकर विकसित देशों का रुख उत्साहजनक नहीं रहा है। लेकिन इस बार अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों की ओर से जैसी राय सामने आई है, अगर वे उस पर अमल की ओर भी बढ़े तो इस मसले पर एक सकारात्मक सफर के शुरू होने की उम्मीद की जा सकती है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने साफ लहजे में कहा कि ये जोखिम के क्षण हैं, लेकिन अवसर के भी क्षण हैं… अमेरिका और विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को जलवायु परिवर्तन से निपटने का काम करना ही होगा।
दूसरी ओर, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने भी दुनिया के धनी देशों को इसमें आगे बढ़ कर निवेश करने की जरूरत पर जोर दिया। जापान ने भी 2030 तक उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य बढ़ा कर छियालीस फीसद करने का फैसला लिया। जाहिर है, जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के सबसे मुख्य कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर इस वैश्विक सम्मेलन में पहले के मुकाबले साफ तस्वीर दिख रही है और विकसित धनी देशों की ओर से नई पहल सामने आ रही है।
दरअसल, अब तक जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के संकट से लड़ाई शुरू करने की योजनाओं में विकसित देशों की ओर से लगभग समूचा बोझ विकासशील देशों पर ही डाला जाता रहा है। जबकि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मुख्य जिम्मेदार विकसित देश और खासतौर पर अमेरिका और चीन ही रहे हैं। अब इस बार के सम्मेलन में प्रस्तावों और विचारों की कसौटी पर तो सक्षम देशों के नेताओं के बयान में नेक इरादों की झलक मिलती है, लेकिन यह देखने की बात होगी कि इन पर अमल के मामले में वे क्या ठोस पहल करते हैं।
हालांकि इतना तय है कि महामारी के दौर में जिस तरह अनेक पहलुओं पर विमर्श की जमीन बनी है, ऐसे माहौल में हुए इस आयोजन से जलवायु परिवर्तन का मुद्दा फिर से विश्व भर में एक मुख्य कार्यक्रम के रूप में सामने आ सकता है। लेकिन सवाल है कि क्या इरादे जताने से आगे इतनी ही शिद्दत से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की मुख्य चुनौती से निपटने और अक्षय ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ने के लिए किसी ठोस कार्ययोजना तक भी पहुंचने की स्थिति बनेगी?
सौजन्य - जनसत्ता।
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