अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन की अध्यक्षता में जलवायु परिवर्तन पर दो दिवसीय आभासी बैठक हाल ही में संपन्न हुई जिसमें दुनिया भर के दर्जनों नेताओं ने शिरकत की। इस बैठक में कम से कम एक अहम काम हुआ: यह बात स्पष्ट हुई कि जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक सहयोग के मामले में पिछले अमेरिकी प्रशासन का गतिरोध उत्पन्न करने वाला रुख बीते दिनों की बात हो चुका है।
बाइडन के पहले वाले प्रशासन नेे खुद को पेरिस समझौते से अलग कर लिया था और कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के इरादे से बनाए गए कई घरेलू नियमों को ध्वस्त कर दिया था। बाइडन और उनके जलवायु राजदूत, पूर्व विदेश मंत्री जॉन कैरी ने कम से कम यह संदेश देने का काम किया कि हालात अब बदल गए हैं। उन्होंने सन 2030 तक अमेरिका में उत्सर्जन कटौती के स्पष्ट लक्ष्य तय किए। अब अनुमान पेश किया गया है कि वहां उत्सर्जन का स्तर सन 2005 के स्तर के 50 फीसदी रह जाएगा।
कई अन्य देशों ने भी सन 2030 के लिए लक्ष्य तय किया है: जापान ने कहा कि वह अपने 2013 के उत्सर्जन स्तर पर में 46 फीसदी की कमी करेगा जबकि कनाडा ने 2005 के स्तर की तुलना में 40-45 फीसदी कमी करने की बात कही। इसके बावजूद कई अन्य देशों के कदम निराशाजनक रहे।
उदाहरण के लिए प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में काफी ऊंचा स्थान रखने वाले ऑस्ट्रेलिया ने इस विषय में कुछ खास करने को नहीं कहा। ब्राजील और रूस भी दिक्कतदेह हैं। ब्राजील ने तो पर्यावरण संबंधी व्यय में कटौती तक करने की बात कही। चीन जो दुनिया भर में कोयला आधारित बिजली उत्पादन में आधे का हिस्सेदार है, उसने भविष्य के लिए कोई लक्ष्य तय नहीं किया। उसने बेहद सावधानी के साथ भविष्य के लिए कोई प्रतिबद्धता जताने से भर परहेज किया। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने यह अवश्य कहा कि उनका देश 2026 से कोयले की खपत कम करना शुरू करेगा। इसमें कुछ नया नहीं था, यह बात बीते कुछ वर्षों के अनुमान के अनुरूप ही थी।
ठोस कदमों की इस कमी ने भारत पर से भी कुछ दबाव कम किया होगा। यह बात भी ध्यान देने वाली है कि अपने दावों के बावजूद अमेरिका का प्रदर्शन यूरोपीय संघ की तुलना में अपेक्षा से कमजोर रहा है। अमेरिका पर्यावरण के अनुकूल तकनीक में अधिक से अधिक निवेश की इच्छा रखता है, वह इसके उत्सर्जन कटौती का बेहतर तरीका मानता है तो वहीं यूरोपीय संघ मानता है कि मांग में बदलाव भी आवश्यक है। वह इसके लिए नियामकीय उपाय अपनाने में लगा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन से निपटने संबंधी अपनी टिप्पणी में जीवनशैली में बदलाव की बात कही। इस बात को विकसित विश्व में मांग प्रबंधन की बात से भी जोड़कर देखा जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका की यह नई ऊर्जा स्वागत करने लायक है लेकिन इसे पूरी दुनिया में तब तक गंभीरता से नहीं लिया जाएगा जब तक इसके लिए ऐसी वैधानिक व्यवस्था नहीं की जाती है जिसे डॉनल्ड ट्रंप जैसे विचार रखने वाला बाइडन का कोई उत्तराधिकारी आसानी से तोड़मरोड़ न सके। प्रभावी वैश्विक सहमति हासिल करने के लिए ऐसा ढांचा तैयार करना होगा जो उत्सर्जन के मांग क्षेत्र पर नियंत्रण करे। उदाहरण के लिए अमेरिका में वाहन ईंधन पर कर सन 1993 के बाद से नहीं बढ़ा है। यह जलवायु परिवर्तन के लिए गंभीर देश के लिए उचित नहीं है, भले ही अमेरिकी सरकार कुछ भी दावा करे। भारत को भी यह स्पष्ट करना चाहिए कि विकासशील देश भविष्य में जो भी प्रतिबद्धता जताएं, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों को भी उस पर समुचित प्रतिक्रिया देनी चाहिए।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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