दुख और क्रोध की सीमा: दोष के धर्मशास्त्र में दुख सत्ता में बैठे डरावने चेहरे तक सिमट गया है (अमर उजाला)

एस प्रसन्नराजन  

स्वाभाविक रूप से हम आंकड़ों की भयावहता के अनुकूल हो रहे हैं। मृत्यु अपनी बहुलता पर पलती है और जब भूख चरम पर होती है, तो यह अपनी निजता और गरिमा खो देती है। यह दार्शनिकों के आवरण से छुटकारा पा लेती है और खुद को जीवन के अपरिहार्य अंत के रूप में नहीं, बल्कि थोपे हुए आतंक के रूप में प्रकट करती है। हमने जिसका अनुमान नहीं लगाया था, वह हमारे सामने है- जीवन के बुनियादी ढांचे का धीमा पतन, जिसने एक बार हमें हमारी यात्रा के अब तक के मूल्य के बारे में आश्वस्त किया था। अचानक प्लेग की सबसे बुरी आवृत्तियां मनहूस और सुदूर अतीत से लौट आई हैं।



गुस्से की पत्रकारिता कह सकती है कि यह राजनीति द्वारा निर्मित पूर्णतः भयानक नरक है। हमें उन लोगों द्वारा बताया गया है, जिनके पास सभी 'प्रासंगिक' सवाल तो हैं, लेकिन कोई जवाब नहीं है, कि हम दूसरों के पापों के लिए अपने प्राण गंवा रहे हैं, अब हमारी शराफत यही है कि हम पीड़ा भुगतें। दोष के धर्मशास्त्र में दुख सत्ता में बैठे डरावने चेहरे तक सिमट गया है। नफरत फैलाने वाले राजनेता सुर्खियों से आहत महसूस करते हैं।



मूलतः इनकार करने वाले, पर्दाफाश करने वाले, बाधा डालने वाले और आकस्मिक देवता बनने वाले-इन सभी को दोषी ठहराया जाना चाहिए। हमें सवालों के जवाब मांगने की जरूरत है, न कि नैतिक रूप से दूसरों के ऊपर अपनी सर्वोच्चता साबित करने की। कुछ सवालों के जवाब कभी नहीं मिलेंगे और वैज्ञानिक एवं वैचारिक प्रतिष्ठानों, दोनों की तत्काल जरूरत को देखना होगा। वायरस की उत्पति से जुड़े सवाल चीन की दीवार को पार नहीं करेंगे कि यह कच्चे मांस के बाजार से आया या प्रयोगशाला से? किसी वैज्ञानिक दुर्घटना की आशंकाओं के बारे में सवाल अब भी प्रासंगिक हैं। नेतृत्व की विफलता, जो प्रारंभिक लापरवाही से लेकर अचानक घबराहट तक फैली है और समय से पहले विजय घोषणा से लेकर अंतिम रूप से असहायता तक फैली है, के बारे में भी जवाब पाने के लिए सवाल पूछे जाने चाहिए, न कि सोशल मीडिया के सीवेज सिस्टम में खुद को सही ठहराने के प्रश्नकर्ता के आग्रह को संतुष्ट करने के लिए।


हम सवालों में फंसे हुए हैं और उन लोगों की चुप्पी हमें दुनिया के प्रति आंशिक रूप से अंधा बना रही है, जिनके बारे में हमने सोचा कि उनके पास ज्यादा सवालों के जवाब होंगे। पीड़ा और शोक की कहानी आरोप-प्रत्यारोप की कहानी से बड़ी है। दुख वह है, जो हमें एकजुट करता है, लेकिन वर्तमान में हमारी पृथक कोशिकाओं में खंडित और स्थिर है। साधु-संत किताबों में आपको यह बताते हुए मिल जाएंगे कि तर्क की शक्ति से कैसे इससे उबरा जा सकता है और सेनेका (रोमन दार्शनिक) जैसे किसी व्यक्ति के ज्ञान में हमसे साझा करने के लिए काफी कुछ हो सकता है। या जैसा कि, बुद्ध ने पीड़ा को जीवन की एक स्थिति बताया। जब वास्तविकता भयावह हो, तो सांत्वना के ऐसे रूप अपर्याप्त होते हैं। जब हम अपने अलगाव की खिड़की खोलते हैं, तो हम जो सुनते हैं, वह दर्शन की सांत्वना नहीं है, बल्कि समान रूप से अपने एकाकीपन में घिरे दूसरे लोगों के नुकसान और दुख की आह होती है।


खैर, हम अब भी नैतिकतावादियों के धार्मिक आक्रोश को सुनते हैं, लेकिन शायद यह वक्त अपने दुखी भाइयों के दुख में शामिल होने का है। इसका मतलब यह नहीं कि हम गुस्से को अनदेखा कर दें और दोषियों को दोषमुक्त कर दें, इसका तात्पर्य बस यही है कि हम दोष के भातृत्व भाव के निरपेक्षतावादी सिद्धांत को खारिज कर दें। यह हमें वापस समुदाय की ओर लौटने का आह्वान करता है। समुदाय हमारे नागरिक जीवन की एक आवश्यक इकाई है, जिसमें व्यक्तिगत जिम्मेदारी समानुभूति का सर्वोच्च रूप है। जिम्मेदारी की यह भावना स्वाभाविक रूप से हमारे गुस्से को कम करती है, क्योंकि जो बात अधिक मायने रखती है वह एक सरकार की शक्ति नहीं, बल्कि व्यक्तिगत भावना की उदारता है। दुख की इस घड़ी में, हमारे नुकसान की सर्वाधिक निजी भावना का अनुमान केवल उन लोगों द्वारा लगाया जा सकता है, जो खुद इस दुख में फंसे हुए हैं और अस्तित्व बचाने की इसी समस्या से जूझ रहे हैं। इस तरह के ज्ञान के बाद, निश्चित रूप से कुछ आराम मिल सकता है।


अमेरिकी समाजशास्त्री अमिताई एजियोनी, जो साम्यवाद से प्रेरित हैं, ने तर्क दिया है, कि व्यक्तिगत होना समुदाय की अस्वीकृति नहीं है। वह लिखते हैं, ‘समुदायों का एक महत्वपूर्ण पहलू अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण प्रदान करने की उनकी क्षमता है, जो अपने सदस्यों की नैतिक प्रतिबद्धताओं को सुदृढ़ करता है, अर्थात, वे साझा भलाई को बढ़ावा देते हैं। यह काफी हद तक स्वैच्छिक सामाजिक व्यवस्था बनाने में मदद करता है। व्यवहार के मानदंडों को सुदृढ़ करने का सबसे प्रभावी तरीका इस तथ्य पर निर्मित है कि लोगों को दूसरों से निरंतर अनुमोदन की सख्त आवश्यकता है, विशेष रूप से उन लोगों से, जिनके साथ उनके जुड़ाव के स्नेहपूर्ण बंधन हैं, जैसे कि उनके समुदाय के सदस्य।’

एजियोनी के समाजशास्त्र पर आधारित 'वाद' को भूल जाइए, यह दूसरों की सहानुभूति का अनुमोदन है, जो समुदाय प्रदान करते हैं। अकेले समुदाय, सरकारें नहीं। इस अनुमोदन को जानने पर दुख सहनीय हो जाता है।


क्रोध नहीं, व्यवस्था की मानव निर्मित विफलताओं को अब भी ठीक किया जा सकता है। और भारत जैसे विशाल आकार तथा गरीबी व अशिक्षा, राजनीतिक अनैतिकता जैसे सामाजिक विसंगति वाले देश में इस तरह की विफलताएं दुख को सहने के लिए और भी मौलिक बनाती हैं, और दुख भी हमारे विवेक को एकाग्रचित्त करने के लिहाज से अलग-थलग पड़ जाता है। फिर भी, क्या सत्ता की असंवेदनशीलता, और गुस्से के विषैलापन का जुनून हमें समुदाय के मूल दायित्वों से अलग करता है? महामारी के समय विचार दुख को कम व्यक्तिगत मामला बना सकता है। धार्मिक नैतिकता में दुख ईश्वर को अंतरंग बनाता है। पीड़ा से उपजी नैतिकता में दुख साथी मनुष्यों को भगवान बना देता है।

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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