नालायक बेटे (पत्रिका)

- गुलाब कोठारी

सुना है हमारा देश ज्ञान में कभी जगद्गुरु था। वैदिक ज्ञान चरम पर था। संस्कृत, आयुर्वेद तथा ज्योतिष जैसे विषयों में पारंगत था। फिर आज अंग्रेजी का गुलाम क्यों हो गया? क्यों हमारा ज्ञान आज हमारे ही काम नहीं आ रहा? क्यों नए-नए चाणक्य और आर्यभट्ट पैदा नहीं हो रहे? विश्वविद्यालयों की तो भरमार है, गोल्ड मैडल भी खूब बंटते हैं, राष्ट्रीय स्तर के सम्मान झोलियों में भरे जा रहे हैं और कोई देश को कुछ दे नहीं जाता। माटी के प्रति अहसान भी चुकाने से गए।

संस्कृत के विद्वानों की लम्बी कतार है। केवल अध्यापन और कर्मकाण्ड। शास्त्रों को २१वीं सदी की पीढ़ी को पढ़ाने लायक नहीं बना पाए। संस्कृत, देववाणी के नाम पर रुढि़ बनकर रह गई। प्राचीन ज्ञान से आज पूरा देश अनभिज्ञ होता जा रहा है, हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं में इसे उपलब्ध ही नहीं करा पाए। अंग्रेजी शैली का अध्यापन, परीक्षा क्रम, शोध छात्रों को शून्य में धकेलता जा रहा है। क्या इन्हीं छात्र/छात्राओं के बूते विश्व गुरु बनने के सपने देखते हैं? गूढ़ रहस्य तो शिक्षकों ने भी भुला दिए। यही हाल ज्योतिष और आयुर्वेदिक शास्त्रों का है। इन्होंने तो देश की नाक कटवा दी। ज्योतिष आत्मा (ज्योति) का शास्त्र है। आयुर्वेद आयु का। दोनों ही तत्त्व हमको सूर्य से प्राप्त होते हैं। पेट भरने के साधन बनकर रह गए।

सबसे ज्यादा धिक्कारने का विषय तो है आयुर्वेद। कहां भगवान् धन्वन्तरि को पूजते हैं, कहां देव-चिकित्सक अश्विनी कुमारों के गुणगान होते हैं और कोरोना जैसी भीषण महामारी में स्वयं का और परिवारों का इलाज भी अस्पतालों में (आयुर्वेदिक नहीं) करवा रहे हैं। देश का गौरव दफन कर दिया। केन्द्र में भी और राज्यों में भी आयुर्वेद के विभाग हैं, मंत्रालय हैं। देशभर में विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों की शृंखला है। देश पिछले एक वर्ष से कोरोना से युद्ध में फंसा है। किसी कोने से आवाज नहीं आई कि आयुर्वेद के पास कोरोना का पुख्ता इलाज है। पिछले एक साल में कोई शोध भी नहीं हुआ। कितने देशों ने टीकों की खोज कर डाली। हमारे वैद्य समुदाय के विद्वान अपने ललाट पर कलंक के टीके लगवा रहे हैं। होना तो यह चाहिए था कि भारत, विश्वपटल पर आयुर्वेद के अनेकों विकल्प रखता। शर्मसार है यह देश आज।

सारे देश में अस्पताल मरीजों से अटे पड़े हैं। श्मशान लाशों से भरने लगे हैं। सरकारी अस्पतालों में न दवा, न डॉक्टर, न पलंग, न टीका। सरकारें क्यों नहीं आयुर्वेद के काउण्टर खोलती। उनको भी बजट क्यों नहीं देती-सेवा करने का। धन्धा वे भी करके दे देंगे। उनका आत्म विश्वास जागेगा। आज सरकारी अफसरों का नजरिया भी उनके प्रति विश्वसनीय नहीं है। किसी बड़े अफसर को किसी भी वैद्य के घर जाना पड़े तो बिखरी जड़ी-बूटियों को देखकर बिना इलाज ही लौट जाए। शिक्षा ने जैसे क्लर्क पैदा कर दिए, वैसी ही गुलामी की मानसिकता हर क्षेत्र में भर दी। अंग्रेजी ही श्रेष्ठ है। स्वतंत्रता से पहले भी, आज भी।

आश्चर्य भी है कि खुद सरकार को अपने मंत्रालयों और विश्वविद्यालयों पर भरोसा नहीं। सरकार का वरदहस्त होने से डॉक्टर भी जमीन से ऊपर उठ गए। आयुर्वेद को शत्रु मानने लग गए। आज आप किसी डॉक्टर से आयुर्वेद की बात करके देख लें। किसी मंत्री को इलाज कराते देख सकें तो बताना। एक तरह के ग्लैमर, व्यापारिक दृष्टिकोण ने मेडिकल साइन्स के नाम पर क्या नहीं किया। लेकिन इसकी सारी जिम्मेदारी तो आयुर्वेद के चिकित्सकों और मंत्रालयों की ही है। वे देशवासियों के स्वास्थ्य की रक्षा स्वदेशी ज्ञान से नहीं कर सके। जो विभाग जनता पर भार बन जाए क्यों ना उसे बंद कर देना चाहिए।

सच पूछो तो कोरोना ने इनको भी सबक ही सिखाया है। इनके पैरों के नीचे जमीन ही नहीं है। ये सब रातों-रात धनवान बन जाना चाहते हैं। सारे नए वैद्य, एलोपैथी पढऩा चाहते हैं, दवाइयां घोटना नहीं चाहते, रोगी को तुरन्त ठीक करना चाहते हैं-डॉक्टर की तरह। भले ही घर पर दवाई उम्रभर देते रहें। शानदार अस्पताल-स्टाफ हों। देखो, हमारी शिक्षा देश को पराए ज्ञान की बैसाखियों पर चलते रहना सिखा रही है। प्रकृति से व्यक्ति का सम्बन्ध विच्छेद कर रही है। शिक्षा का ही यह दोष भी है आज आपातकाल में भी हमारा वैद्य विदेशी सहायता को आते देखकर सन्तुष्ट है। स्वतंत्र शरीर के रहते हुए भी हम मानसिक रूप से परतंत्र हैं। जब आत्मा सो जाए, तब प्रलय को स्वीकार कर लेना चाहिए।

सौजन्य - पत्रिका।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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